Saturday, May 14, 2011

जनलोकपाल: असली समस्या का नकली समाधान

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जनलोकपाल यदि वास्तव में जनता का हो, तो इसके फायदे सन्देह से परे हैं। यद्यपि जनलोकपालवादियों ने अब तक इस पद पर नियुक्ति के जो प्रस्ताव दिए हैं, उसमें यह खतरा है कि प्रस्तावित जनलोकपाल बहुसंख्यक ‘गरीब जन’ द्वारा नियुक्ति नहीं किया जाएगा, अल्पसंख्यक ‘अमीरजन’ द्वारा नियुक्त होगा और अमीरजन की ओर से सरकार, संसद और न्यायपालिका पर शासन करेगा। भ्रष्टाचार में शामिल भारत के किसी भी बडे उद्योगपति को कभी भी सज़ा नहीं हो पायी, नेताओं और अधिकारियों को दण्डित करने के हज़ारों उदाहरण मौजूद हैं। जनलोकपालवादी इस पद पर नियुक्ति का जो प्रस्ताव दे रहे हैं, उसमें इस बात की कोई व्यवस्था नहीं है कि जनलोकपाल का पद धन की धमकी और मीडिया की धमकी से मुक्त होगा। धनवानों व मीडियावानों की धमकी में आ जाने के कारण ही सीबीआई, राज्यों का पुलिस महकमा, आयकर विभाग, विज़िलेंस विभाग...... सभी विभाग भ्रष्टाचार को रोकने में असहाय साबित् हुए। इस निराशा ने इन विभागों के कर्मचारियों को भ्रष्ट बनाया। इन विभागों के इमानदार व कर्त्तव्यपरायण कर्मचारियों की हमेशा से शिकायत रही है कि नेता लोग उनके काम में दखल देते हैं; इसलिए मज़बूर होकर ये कर्मचारी भ्रष्ट लोगों को सुबूतों के बावज़ूद दण्डित नहीं करवा पाते। नेताओं से अगर पूछो कि वे लोग ऐसा क्यों करते हैं। तो अक्सर तो वे इस सवाल का जवाब टाल जाते हैं।


यदि आपको वह अतिविश्वसनीय मानता हो और उसे यह विश्वास हो जाये कि उसका नाम गोपनीय रह जाएगा, तब वह बताता है कि “किसी भी पार्टी में सभी अधिकार पार्टियों के अध्यक्ष के हाथ में है। पार्टियों का संविधान ही ऐसा होता है। पार्टियों के अध्यक्ष उन उद्योगपतियों को भ्रष्टाचार के आरोप में दण्डित होने से बचाते हैं, जो उद्योगपति पार्टी अध्यक्ष को अरबों-खरबों रुपया चन्दा देते हैं।“ इस चन्दे की लगाम से पार्टी अध्यक्ष के काम में उद्योगपति लोग दखल देते हैं। चन्दे के साथ उनकी शर्त रह्ती है कि वे मंत्रियों व अधिकारियों को भ्रष्ट बनायेंगे किंतु उन तक कानून के हाथ नहीं पहुंचने चाहिए। दुर्भाग्यवश यदि घोटाला खुल भी जाये- तो सज़ा केवल नेताओं व अधिकारियों को मिलनी चाहिए। बडे उद्योगपतियों की ये शर्त जिस पार्टी का मुखिया नहीं मनेगा, उसे चन्दा नहीं मिलेगा। जिस पार्टी को चन्दा नहीं मिलेगा, वह पार्टी इतने सांसद-विधायक नहीं जिता सकती; जितने की ज़रूरत राजसत्ता पाने के लिए ज़रूरी होता है। उद्योगपतियों की भ्रष्ट शर्त जिन पार्टियों के मुखिया मानने को तैयार होते हैं, सरकार केवल उन्हीं पार्टियों के बन सकती है। यह तथ्य सिद्ध हो चुका है। जिन पार्टियों के मुखिया उद्योगपतियों पर भी कानून का राज कायम करने की सोचतs हैं, उन पार्टियों की सरकार बन ही नहीं पाती। जब तक रजनीतिक सुधारों के प्रस्ताव को कार्यांवित करके रजनीति की अर्थ व्यवस्था नहीं बनती, तब तक ऐसी पार्टियों की सरकार भविश्य मे भी नही बन सकती। स्पष्ट है कि चन्दे की ताकत से बडे उद्योगपति सत्ताधारी पार्टियों के अध्यक्षों के काम में दखल देते हैं। जब ऐसे उद्योगपति कभी कानून के जाल में फंसते हैं तो सत्ताधारी पार्टियों के अध्यक्ष मंत्रियों के काम में दखल देकर उद्योगपतियों को बचाते हैं। पार्टियों के अनुचित संविधानों के कारण मंत्रीगण अपनी पार्टी के मुखिया की बात मानकर अपने मातहत अधिकारियों के काम में दखल देते हैं। ऊपर के ओहदों पर विराजमान अधिकारी मज़बूर होकर मंत्री का आदेश् मानता है और अपने नीचे के अधिकारियों के काम मे दखल देता है। यह अंतहीन सिलसिला चलता रहता है।


अंत में नीचे के अधिकारी इस निष्कर्ष पर पहुंच जाते हैं कि भ्रष्टाचारी बनकर ही सुकून से जीना सम्भव है। वे भी भ्रष्टाचार को सभ्यता मानकर काम करने लगते हैं; जिससे आम जनता में आक्रोश पैदा होता है। इस आक्रोश को कभी जयप्रकाश नारायण भुनाते हैं, कभी विश्वनाथ प्रताप सिंह भुनाते हैं, कभी टी0 एन0 शेषन भुनाते हैं और कभी लोकपालवादी भुनाते हैं। विपक्षी पार्टियां तो इस आक्रोश को सदा से भुनाती रही हैं। इसीलिए लोकपालवादी अपने को अराजनीतिक होने का प्रचार ज्यादा करते हैं। इसके पीछे इनकी रणनीति यह है कि राजनीतिक लोग तो भ्रष्टाचार के खिलाफ जनभावनाओं को केवल भुनाते हैं, हम तो इन भावनाओं की ताकत से “स्वयं सेवा” करेंगे; राजनीति नहीं करेंगे। जनलोकपालवादियों के उस मसौदे को ध्यान से देखें तो उनके काम में भी उद्योगपतियों का दखल साफ-साफ दिखाई पडता है। लोकपालवादियों ने लाखों पर्चे लोगों के बीच बांटें। उसमें से जो पर्चा जंतर-मंतर धरना पर बडे पैमाने पर बांटा गया- उसका मजमून कुछ इस प्रकार है- “ये संस्था (लोकपाल) निर्वाचन आयोग और सुप्रीम कोर्ट की तरह सरकार से स्वतंत्र होगी। कोई भी नेता या सरकारी अधिकारी जांच की प्रक्रिया को प्रभावित नहीं कर पाएगा।” इस पैरा से दो बातें स्पष्ट हैं। पहला यह कि भ्रष्टाचारियों को सज़ा देने की जो जांच प्रक्रिया है, उसको प्रभावित करने वाले नेताओं और अधिकारियों से भी बडी सत्ता कौन है- यह जानकारी लोकपालवादियों को नहीं है। वे यह नहीं जानते कि इन दोनों से भी बडी सत्ता उद्योगपतियों की है जो पैसे की अथाह ताकत से नेताओं और अधिकारियों को प्रभावित करती है। नेता और अधिकारियों की हैसियत इन उद्योगपतियों की परछाईं और कठपुतली भर की है। लोकपालवादियों के पर्चे से जो दूसरी बात स्पष्ट होती है वह यह है कि अगर उनको मालूम है तो वे लोग यह प्रचार क्यों नहीं कर रहे हैं, कि लोकपाल की जो प्रस्तावित संस्था होगी उसकी जांच को प्रभावित करने से नेताओं व अधिकारियों के साथ-साथ उद्योगपतियों को भी रोका जाये। आखिर भ्रष्टाचार रोंकने के सभी शासकीय संस्थाएं जब उद्योगपतियों के दखल के कारण ही निष्फल हुईं हैं तो यह सम्भव हो ही नहीं सकता कि प्रस्तावित लोकपाल के काम में उद्योगपति दखल नहीं देंगे। वे अगर चन्दे से दखल नहीं देंगे, तो लोकपाल की नियुक्ति की प्रक्रिया में दखल देंगे। वे चाहेंगे कि ‘जनता’ के प्रतिनिधि के तौर पर लोकपाल की चयन समिति में जो लोग शामिल किये जायें, वे भले ही उद्योगपति न हों, किंतु उद्योगपतियों के भ्रष्टाचार को “राष्ट्र के विकास के लिए उपयोगी” मानते हो, घूस देने वाले को पतली गली से भाग जाने को कहते हों और घूस लेने वाले को डंडा लेकर दौडाते हों। विधवा के पेट में बच्चा डालने वाले को बचाते हों और गर्भवती विधवा को फांसी पर चढाते हों। ऐसी सोच के इमानदार, सादगी पसंद किंतु अयोग्य लोगों की संख्या भारत में करोडों में है। उद्योगपति चन्दे की ताकत से सत्ताधारी पार्टियों के अध्यक्षों पर पहले से ही राज करते रहे हैं,


अब तो लोकपाल के पद पर अपनी कठपुतली बैठाकर संवैधानिक संस्थाओं पर भी राज करेंगे। लोकपाल की नियुक्ति प्रक्रिया में अगर उद्योगपतियों के दखल को रोंकने के सक्षम उपाय न किये गये तो लोकपाल भ्रष्टाचार रोक पाये, या न रोक पाये- लोकतंत्र की हत्या ज़रूर कर देगा। जो लोकतंत्र आज चल रहा है, इसमें लोक “तंत्र” को उतना ही प्रभावित कर पाता है, जितना उसके पास पैसा होता है। चूंकि धन का अधिकांश हिस्सा उद्योगपतियों के पास ही होता है, इसलिए इस लोकतंत्र में उद्योगपति ही ‘जनता’ बनकर जनता के नौकरों यानी अधिकारी व मंत्रियों पर राज करते रहे हैं। उद्योगपतियों की कठपुतली जब लोकपाल बनेगा, तो देश की असली बहुसंख्यक जनता का गला और भी कस जाएगा। राज्य का निर्माण करने वाले बहुसंख्यक वोटरों के गले की फांसी को उद्योगपति लोग अपनी पालतू मीडिया के सहारे उनके गले की टाई के रूप में प्रचारित करेंगे। विकास दर और जीडीपी के आकडों की कैसेट को मीडिया की लाउडस्पीकर में लगा कर इतनी जोर से बजायेंगे कि गरीबी, गुलामी, बेरोज़गारी व मंहगाई के दल-दल में छटपटाते देशवासियों की चीखें गुम हो जाएंगी। अंत में लोकतंत्र को ही लोग समस्या का कारण मानने लग जाएंगे और हिंसा के सिवा उनके सामने कोई विकल्प नहीं बचेगा राष्ट्र के चेहरे पर भ्रष्टाचार की जो मक्खी बैठी है, उसे उडाना तो ठीक है लेकिन उस मक्खी पर लोकपालवादियों की गोली चलायी जाएगी तो मक्खी उड जाएगी, राष्ट्र मर जाएगा। लोकपालवादी अपने मसौदे में उद्योगपतियों के ऊपर अंकुश लगाने का कोई प्रावधान नहीं शामिल नहीं किये हैं। वे यह भी नहीं बता रहे हैं, कि लोकपाल को उद्योगपतियों के प्रभाव से कैसे बचाया जाएगा? वे यह भी नहीं बता रहे हैं कि यदि लोकपाल भ्रष्ट उद्योगपतियों को दण्डित करने वाले मंत्रियों, अधिकारियों को अपना निशाना बनाएगा, तो लोकपाल को दंडित कैसे किया जाएगा? और उसको उसके पद से हटाया कैसे जाएगा? नया लोकपाल फिर उसी मानसिक नस्ल का न हो, इस बात की गारंटी देने वाला प्रावधान लोकपाल बिल में क्या होगा?


लोकपालवादी सनक भरी शैली में कहते हैं कि दो साल के अन्दर सभी मुकदमों की जांच पूरी की जाएगी, लेकिन इस जांच की प्रक्रिया क्या होगी- इसका मसौदा नहीं देते। अगर वास्तव में ये लोग काबिल हैं, तो जनता के सामने सबसे पहले जांच की इस प्रक्रिया का मसौदा ही रखना चाहिए था। यदि वास्तव में इस मसौदे में त्वरित गति से न्याय कर पाने की कुब्बत है, तो इस प्रक्रिया का लाभ केवल लोकपाल क्यों ले? इस प्रक्रिया का लाभ पूरी न्यायपालिका क्यों न ले? अगर जांच की यह प्रक्रिया जल्दबाज़ी करने में तो सफल हो जाये- लेकिन न्याय की बजाय अन्याय करे, तो इस प्रक्रिया को लोकपाल संस्थान द्वारा भी क्यों अपनाया जाना चाहिए? लोगों में भय के आधार पर राज करने की प्रक्रिया इस्लाम में पहले से रही है, जिसके खिलाफ आज स्वयं इस्लामी देशों में विद्रोह हो रहा है। “सरकारी कर्मचारियों में भय पैदा होगा’”- केवल इस तर्क के आधार पर क्या लोकतंत्र और राष्ट्र की हत्या कर देनी चाहिए? चूंकि मीडिया मध्य वर्ग के हलक में झूठ को भी उतारने में कामयाब हो जाता है- क्या इस भय से सभी संवैधानिक संस्थाओं को उद्योगपतियों के सामने घुटने टेक देना चाहिए। गत दिनों रतन टाटा और अनिल अम्बानी की संसदीय जांच समिति (जेपीसी) के कठघरे में पेशी हुई। केवल दो खरबपतियों को संसदीय जांच समिति के समक्ष पेश होने से देश के सभी खरबपति गोलबन्द हो गये और फैसला कर लिया कि अब भारत की सभी संवैधानिक व लोकतांत्रिक संस्थाओं के गले में लोकपाल का सिकडा पहना कर अपने दरवाज़े पर बांध लेना चाहिए। निजी मीडिया ने तेज शोरगुल करके इस पोल को खुलने नहीं दिया। हो सकता है कि भविष्य में भी यह पोल न खुले।


कारण यह है कि -राजीव गांधी ने वीपी सिंह को वित्त मंत्री के पद से हटाकर रक्षा मंत्री क्यों बनाया था, सीताराम केसरी ने देवगौडा सरकार से रातोरात समर्थन वापस क्यों लिया था,.....इन घटनाओं के पीछे का असली कारण आज तक बहुत कम लोगों को मालुम है। लेकिन देश के हर सोचने समझने वाले व्यक्ति के दिमाग पर अब लोकपाल आन्दोलन की खुजली का आनन्द खत्म हो रहा है, खुजली के बाद की पीडा का एहसास अब होने लगा है। लोग यह सोचने के लिए विवश हुए है कि आखिर लोकपाल के लिए यह आन्दोलन अन्ना हज़ारे का था, या मीडिया का था, या संसद भवन के कठघरे में रतन टाटा की पेशी से बौखलाए देश के उद्योगपतियों का था? दिल्ली की मीडिय़ा की कार्यप्रणाली जानने वाले किसी भी व्यक्ति को यह समझना तनिक भी मुस्किल नही है कि मीडिया को लोकपाल आन्दोलन की तरह प्रचार में लगाने की कीमत क्या है और इस कीमत को सरकार के अलावा दूसरा कौन दे सकता है? यदि लोकपाल बनता है तो क्या उसके सामने सबसे पहली जांच का यही मुद्दा नहीं होना चाहिए? अगर यह आन्दोलन अन्ना हज़ारे को आगे करके उद्योगपतियों ने चलाया तो क्या जनलोकपाल यह हिम्मत दिखा पाएगा कि वह उन उद्योगपतियों को दण्डित करे। जिन्होंने मीडिया को खरीदकर देश में ग्रह युद्ध जैसे हालत पांच दिन के अन्दर पैदा कर दिया? अगर उद्योगपति एक बार ऐसा कर सकते हैं, तो भविष्य में ऐसा करके वे गृह युद्ध नहीं करवा देंगे- इसकी क्या गारंटी है? इस अनुभव के बाद क्या निजी मीडिया द्वारा पैनिक क्रियेशन के खिलाफ कोई सक्षम कानून नहीं बनना चाहिए? एक बार यह मान भी लिया जाये कि निजी मीडिया ने किसी अच्छे काम के लिए पैनिक क्रियेट किया, तो इस बात की गारंटी क्या है कि भविष्य में बुरे काम के लिए पैनिक क्रियेट नहीं करेगा? अगर मीडिया के लोग यह कहकर अपना बचाव कर रहे हैं कि उन्हें जो लोग विज्ञापन के नाम पर अंधाधुन्ध पैसा देते हैं, उनके दखल को उन्हें मानना पडता है- तो क्या निजी मीडिया का राष्ट्रीयकरण करना अब अनिवार्य नहीं दिखाई पड रहा है? क्या संविधान के तीनों स्तम्भों को अपने अन्दर छुपाकर अब निजी मीडिया लोकतंत्र का अकेला स्तम्भ रहेगा? अब सरकार, संसद व न्यायपालिका, प्रस्तावित लोकपाल को यह अपने डण्डे से हाँकेगा? और इस मीडिया की पीठ पर डण्डा मार-मार कर उद्योगपति जहाँ चाहेंगे, वहाँ मीडिया को ले जायेंगे, जो चाहेंगे उससे वो काम करवायेंगे? आखिर निजी मीडिया यह बात क्यों नहीं बताता, कि नेता व अफसर तो उस विधवा की तरह हैं, जिसके पेट में उद्योगपति ही भ्रष्टाचार का बच्चा डालते हैं। जो वर्ग भ्रष्टाचार के लिए मुख्य रूप से जिम्मेदार है, लोकपाल को उसके ऊपर क्यों नहीं बैठाया जा रहा है? पार्टियों के अध्यक्ष, प्रधानमंत्री व मुख्यमंत्री तो उद्योगजगत की पहले से कठपुतली रहे हैं। इन कठपुतलियों के ऊपर लोकपाल बैठाकर भ्रष्टाचार को दूर करने की नकली दवा का प्रचार निजी मीडिया क्यों कर रहा है? लोकपाल उद्योगपतियों द्वारा मीडिया के माध्यम से नेताओं व अधिकारियों को दी जा रही सबक है या फिर नेताओं व अधिकारियों को भ्रष्ट बनाते रहने और बचे रहने का पुख्ता इंतज़ाम है? आखिर विधवा के पेट में बच्चा डालने वाले कब तक विधवा को सज़ा देते रहेंगे? और बच्चा डालने के लिए नयी विधवाएं तलाशते रहेंगे? भ्रष्टाचार जैसी असली समस्या का नकली समाधान देने का सिलसिला भारत में राजनीतिक आजादी के बाद 63 साल तक चला, आगे कब तक चलेगा? थोडा सा भी समझदार व्यक्ति जो राजव्यवस्था व अर्थव्यवस्था के आपसी रिश्ते को समझता है वह जानता है कि भ्रष्टाचार का असली समाधान राजनीति के मौलिक सुधार से ही सम्भव है, फिर क्यों इस बात को दबाकर नकली दवा का प्रचार क्यों किया जा रहा है? 14 वीं लोकसभा में 137 सांसदों ने राजनीतिक सुधारों का प्रस्ताव पेश किया था, सभी उद्योगपति एकजुट होकर पार्टियों के अध्यक्षों को धमका रहे हैं। इस प्रस्ताव पर संसद में बहस नहीं होने दे रहे हैं. वित्त मंत्रालय से बार-बार इस प्रस्ताव के खिलाफ बीटो करवा रहे हैं। जो वर्ग देश में राजनीतिक सुधारों का विरोध करने में लगा हो, उस पर कौन विश्वास करेगा कि वही वर्ग लोकपाल के माध्यम से भ्रष्टाचार दूर करना चाहता है?


भारत में संवैधानिक संस्थाओं के शिखर पर बैठे लोगों को उद्योगपतियों और मीडिया के दुष्प्रचार व धमकी के सामने झुकना नहीं चाहिए। अगर ज़रूरी हो, तो अपने पद से त्यागपत्र देकर निजी मीडिया के बगैर अपने संगठन के माध्यम से जनमानस के बीच सच्चाई बताना चाहिए। यह वक्त देश की जनता के साथ आर्थिक व सांस्कृतिक बलात्कार करने वालों के खिलाफ परा-राजनीतिक गठबन्धन बनाने का है। जिससे भ्रष्टाचार के साथ-साथ पीढी-दर-पीढी पीडित देशवासियों की अन्य समस्याओं को भी हल किया जा सके। भ्रष्टाचार की शोरगुल में जनता की आर्थिक व सांस्कृतिक चीखों को पहले भी दबाया जाता रहा है। एक बार फिर यह प्रयास हो रहा है। लोकपाल की खुजली की खुमारी उतरने के बाद उन लोगों को गोलबन्द होने की ज़रूरत है, जो टीवी चैनलों के दिमाग से नहीं सोचते, अपने दिमाग से सोचते हैं। जिससे इतिहास में फिर वही बात दोहराने से बचा जा सके।


भरत गांधी राजनीतिक सुधारक

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Petition for Democratic Lokpal Bill to the President of India

लोकपाल पर राष्ट्रपति के समक्ष याचिका

Petition for Democratic Lokpal Bill to the President of India

(Submitted to the President of India on 9th May 2011,7.40 pm)

सेवा में,

महामहिम श्रीमती प्रतिभा देवी सिंह पाटिल,

राष्ट्रपति- भारत सरकार,

राष्ट्रपति भवन,

नई दिल्ली – 110001

विषय : ‘लोकपाल पर संविधानविदों व राजनीति सुधारकों द्वारा तैयार विधेयक (संलग्न) के विषय में ध्यानाकर्षण याचिका।

महोदया,

मैं इस पत्र के माध्यम से महामहिम के समक्ष ध्यानाकर्षण याचिका दायर करता हूँ। इस याचिका के माध्यम से मैं निम्नलिखित तथ्यों की तरफ सरकार का ध्यानाकर्षित करना चाहता हूँ। ये तथ्य इस प्रकार हैं-

1. यह कि शासन-प्रशासन चलाने में अब संसद व विधायिका की भूमिका गौण होती जा रही है, मीडिया के माध्यम से उद्योगपतियों व व्यापारियों की भूमिका बढती जा रही है। संसद में लोकपाल विधेयक पेश करने के लिए जिस प्रकार सरकार को ब्लैकमेल करके अधिसूचना जारी कराई गई है, यह अधिसूचना इस निष्कर्ष का ताजा उदाहरण है।

2 यह कि संसद में किस बात पर बहस होगी, यह बात अब बिज़नेस एडवाइज़री कमेटी (बीएसी) से ज्यादा मीडिया तय करने लगा है। इससे संसद अब जनता के सरोकारों पर बहस करने का मंच ही नहीं रह गया है। मतकर्ताओं के आर्थिक अधिकारों व समावेशी विकास की हमारी योजना पर लगातार लोकसभा में सन 2006 से बहस टाली जा रही है। इसके विपरीत मीडिया तिल को ताड बनाकर संसद में ऐसे विषयों पर बहस कराता रहा है, जो विषय जनता के लिए कम, मुठ्ठी भर मीडिया के मालिकों के लिए ज्यादा महत्त्वपूर्ण रहे हैं।

3 देश-विदेश के उद्योगपतियों व व्यापारियों ने मीडिया के नाम से स्वयं को लोकतंत्र का एक स्तम्भ पहले से घोषित कर रखा है। ऐसी दशा में मीडिया पर वह आचार संहिता लागू की जाये, जो लोकतंत्र के अन्य स्तम्भों पर पहले से लागू है। न्यायालय में विचाराधीन मामलों पर संसद विचार नहीं करती, इसी प्रकार संसद में विचाराधीन मामलों पर न्यायालय विचार नहीं करते। इस आचार संहिता के दायरे में मीडिया को भी लाने के लिए कानून बनाया जाये, जिससे यह स्थापित हो सके कि मीडिया में विचाराधीन मामले संसद व न्यायालय – दोनों में विचार नहीं किये जाएंगे और संसद व न्यायालयों में विचाराधीन मामलों पर मीडिया टिप्पणी नहीं करेगा। इस तरह के कानूनों से मीडिया का कार्यक्षेत्र परिभाषित हो सकेगा, कार्यपालिका, न्यायापालिका व विधायिका में उसके दखल को नियंत्रित किया जा सकेगा और मीडिया का उत्तरदायित्व तय किया जा सकेगा। लोकपाल विधेयक के लिए अधिसूचना (असाधारण गजट, भाग-एक, सेक्शन-एक, स0.- 1(42)/2004 वि.-1, 8 अप्रैल, 2011) जारी कराने में मीडिया ने जो भूमिका निभाई है- इस अनुभव को देखते हुए कार्यक्षेत्रो में दखलन्दाज़ी निरोधक अधिनियम बनाना अनिवार्य हो गया है।

4 समाज के अतिसंपन्न वर्ग की बजाय मीडिया समाज के सभी वर्गों के प्रति उत्तरदायी हो सके- इसके लिए आवश्यक है कि एक नये कानून द्वारा मीडिया के प्रबन्धन व संचालन में अनुसूचित जातियों/जनजातियों, पिछडे वर्गों, समान्य वर्गों. अल्पसंख्यकों. बी0 पी0 एल0 और ए0 पी0 एल0 वर्गों का प्रतिनिधित्व उनके जनसंख्या के अनुपात में सुनिश्चित किया जाये।

5 यह कि यदि अनुचित व अलोकतांत्रिक दबाव डालकर और सरकार को ब्लैकमेल करके संसद द्वारा कोई कानून बनवा लिया जाता है तो ऐसे कानूनों को रदद करने का अधिकार सर्वोच्च न्यायालय को देने के लिए भी एक कानून बनाया जाना चाहिए। जिससे आतंकवादियों के संगठनों व विदेशी वित्तीय संस्थानों द्वारा उस रास्ते का भविष्य में उपयोग संभव न हो सके, जिस रास्ते का उपयोग मीडिया के माध्यम से उद्योगपतियों व व्यापारियों के संगठनों ने लोकपाल विधेयक संबन्धी अधिसूचना जारी कराने में किया है।

6 यह कि परम चरित्रवान होकर भी प्रधानमंत्री व सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश भ्रष्टाचार को अपने बल-बूते नहीं रोक सकते; क्योंकि जहाँ भ्रष्टाचार को स्वयं भ्रष्ट कानून (यथा उत्तराधिकार व संपत्ति संबन्धी कानून) बढाते हैं; वहाँ ये दोनों सत्तायें भी भ्रष्टाचार रोकने में असहाय हो जाती हैं। इसलिए यह आवश्यक हो गया है कि प्रधानमंत्री के पद और उच्च तथा सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीशों को लोकपाल जैसी किसी भ्रष्टाचार निरोधक सर्वोच्च सत्ता के दायरे में लाया जाये।

7 यह कि लोकपाल के संबन्ध में सन 2001 में ग्रिह मंत्रालय संबन्धी संसद की स्टैंडिंग कमेटी द्वारा जो रपट (84 वीं रपट, 26 फरवरी,2001 को लोकसभा में व 7 मार्च, 2001 को राज्य सभा में पेश) तैयार की गई व उसे संसद के पटल पर रखा गया। वह रपट लोकपाल के दायरे में प्रधानमंत्री के पद को व न्यायामूर्तियों को शामिल करने का सुझाव तो देती है, लेकिन लोकपाल के पदस्थापन का कोई ऐसा तरीका नहीं सुझाती, जिसमें लोकपाल के पद का लोकतांत्रिक मूल्य प्रधानमंत्री के पद के लोकतांत्रिक मूल्य से अधिक बन पाता हो। यह कमी अतीत में संसद में पेश उन सभी विधेयकों में मौजूद रही जो विधेयक संसद में सन- 1968, 1971, 1977, 1985, 1989, 1996, 1998, 2001 व 2010 में पेश किये गये। सन 2010 में विधि मंत्रालय द्वारा तैयार लोकपाल विधेयक के प्रारूप में भी यह कमी बरकरार रही। मीडिया के माध्यम से देश-विदेश के औद्योगिक संगठनों ने जनलोकपाल के नाम से लोकपाल विधेयक का जो मसौदा रखा, (और सरकार को ब्लैकमेल करके ज़बरदस्ती एक बिल ड्राफ्टिंग कमेटी बनवा लिया) उसमें भी यह कमी बरकरार है।

8 लोकपाल निर्वाचन हो, जिससे इस पद पर आसीन होने जा रहे व्यक्ति का आचरण व विचारधारा चर्चा का विषय बन सके; लोकपाल कार्यालय किसी की व्यक्तिगत सनक और अनुभवहीनता का शिकार न हो सके, व ऐसे फैसले न दे दे, जिससे उसकी निरर्थकता लोगों के सामने उजागर हो जाये और लोकपाल को भंग करना पड जाये।

9 यह कि प्रधानमंत्री जनप्रतिनिधियों द्वारा चुना जाता है। अत: उसके ऊपर केवल वही सत्ता निगरानी कर सकती है, जिस सत्ता को चुनने में सांसदों से भी अधिक संख्या में जनप्रतिनिधि शामिल हों। चूंकि सांसदों-विधायकों को क्रमश: प्रधानमंत्री व मुख्यमंत्री चुनने का अधिकार पहले से प्राप्त है। इसलिए लोकपाल चुनने का अधिकार देश भर के ब्लाक प्रमुखों को दे दिया जाये- तभी लोकपाल का लोकतांत्रिक मूल्य प्रधानमंत्री के लोकतांत्रिक मूल्य की तुलना में बढ सकता है। लोकपाल का चुनाव केवल वही व्यक्ति लड सकता हो, जो या तो सर्वोच्च न्यायालय का जज रहा हो, सर्वोच्च न्यायालय का जज बनने की योग्यता रखता हो।

10 सरकार के द्वारा सन 2010 में पेश लोकपाल विधेयक में और मीडिया द्वारा प्रचारित जनलोकपाल विधेयक – दोनों में सरकारी कर्मचारियों को रिश्वत देने वालों के अपराध को नज़रन्दाज़ किया गया है। भ्रष्टाचार खत्म करने के पूर्व के उपायों की विफलता का प्रमुख कारण ही इस तरह का पक्षपात रहा है। यह पक्षपात एक बार फिर से दोहराया जा रहा है। दोनों ही विधेयकों में “पब्लिक फंक्सनरी” और “पब्लिक सर्वेंट” के नाम पर केवल रिश्वत लेने वाले को ही घेराबन्दी करने के प्रावधान हैं, “भ्रष्टाचार के आरोपी” को घेरने की कोई योजना नहीं है। लोकपाल का विधेयक पक्षपात से मुक्त करने के लिए यह सुनिश्वित किया जाना चाहिए कि सरकारी कर्मचारी को तब तक दण्डित न किया जाये, जब तक उसे भ्रष्ट बनाने वाले गैर सरकारी व्यक्ति की पहचान नहीं कर ली जाती और उसे भी समान दण्ड से दण्डित नहीं किया जाता।

11 लोकपाल के अधीन चार उप लोकपालों का प्रावधान किया जाना चाहिए। पहला रिश्वत लेने वालों को, दूसरा बडे औद्योगिक घरानों व औद्योगिक संगठनों को भ्रष्टाचार में लिप्त होने संबन्धी कृत्यों व रिश्वत देने के मामलों में उन्हें दण्डित करने के लिए काम करे। तीसरा ऐसे अंतर्राष्ट्रीय संस्थानों के गठन करने के लिए विधायी प्रावधानों व अंतर्राष्ट्रीय कानूनों व सन्धियों की सिफारिश करेगा, जो संस्थान उन अंतर्राष्ट्रीय कानूनों व सन्धियों को निष्प्रभावी बना सकें- जो कानून व जो सन्धियां भ्रष्टाचार के माध्यम से हासिल रकम की और दूसरे देशों के भ्रष्ट लोगों की सुरक्षा करते है। चौथा उपलोकपाल देश में प्रचलित उन कानूनों और उन मूल्यों की समीक्षा करे और संबन्धित कानूनों व मूल्यों मे संशोधन तैयार करके सरकार को कार्यवाही के लिए प्रेषित करे; जिन कानूनों व मूल्यों के कारण भ्रष्टाचार करने के लिए लोगों को प्रेरणा मिलती है।

12 अप्रैल 2011 में जनलोकपाल के विधायी प्रस्ताव को लेकर मीडिया ने जो ऐतिहासिक सक्रियता दिखाई, उसके मूल में कौन-कौन से कारण थे, इसकी जाँच एक सक्षम आयोग द्वारा करवा के रपट संसद के पटल पर कार्यवाही के लिए रखी जाये।

13 विधि मंत्रालय द्वारा पेश व मीडिया प्रचारित लोकपाल विधेयक के दोनों मसौदों में लोकपाल की तलाश की कोई ऐसी प्रक्रिया नहीं दी गई है, जिससे किसी नये ढंग के चरित्र के व्यक्ति की तलाश संभव हो सके और उसका ब्यवहार संवैधानिक पदों पर आसीन वर्तमान लोगों के व्यवहार से अलग तरीके का हो सके। अत: लोकपाल के पद के लिए ऐसे व्यक्ति को तलाशा जाना चाहिए, जो धनेष्णा यानी धन के मोह से मुक्त हो चुका हो। अत: याचिकाकर्ता का प्रस्ताव यह है कि लोकपाल पद पर आसीन होने वाले व्यक्ति का वेतन-भत्ता शून्य होना चाहिए, इस पद पर आसीन होने से पूर्व उसे अपनी समस्त निजी सम्पत्ति भारत सरकार की संचित निधि को हस्तांतरित करने की शर्त होनी चाहिए।

14 यह कि लोकपाल बिल ड्राफ्टिंग कमेटी में कुछ अनिर्वाचित लोगों को यह कहकर शामिल किया गया है, कि वे लोग सिविल सोसाइटी (जनता) के प्रतिनिधि हैं। इसका अर्थ यह भी निकलता है कि इस कमेटी में शामिल मंत्रीगण सिविल सोसाइटी (जनता) के प्रतिनिधि नहीं हैं। जबकि निर्वाचित होने के नाते इन मंत्रियों को सिविल सोसाइटी का प्रतिनिधि होने से नकारा नहीं जा सकता। निर्वाचित प्रतिनिधियों की सिफारिश पर तो भारत के राजकोष से धन खर्च किया जा सकता है, किंतु यदि अनिर्वाचित लोग भी लोकपाल में कोई प्रावधान जुडवाते हैं, तो यह उनकी निजी मनोकामना है। उनकी निजी मनोकामना से जो काम किया जाये, उसका खर्च उन्हें स्वयं उठाना चाहिए। अत: यदि कुछ लोगों की निजी मनोकामना के आधार पर लोकपाल जैसा कोई संस्थान बनाया जाएगा और उस संस्थान का खर्च उन पर भारित होने के बजाय भारत के राजकोष पर भारित होगा- तो ऐसे संस्थान पर खर्च की गई रकम भ्रष्टाचार के दायरे में आयेगी, इसको सरकारी धन के दुरुपयोग की श्रेणी में रखा जाएगा। यदि कुछ लोगों के निजी लोकपाल का खर्च भारत की जनता पर भारित किया जाएगा, तो आने वाले दिनों में लोगों की सनक पर राजकोष के दुरुपयोग की घटनाएं बढती जाएंगी। यह परिस्थिति भ्रष्टाचार से भी बदतर होगी। अत: याचिकाकर्ता यह प्रस्ताव रखते हैं कि लोकपाल विधेयक के ऐसे किसी भी मसौदे को स्वीकार न किया जाये, जिसको तैयार करने में अनिर्वाचित लोगों की भूमिका रही हो।

15 यह कि लोकपाल की अवधारणा 1809 में स्वीडन में आई थी। आज 200 साल बाद भ्रष्ट लोग ज्यादा तकनीकि साधनों से लैस हो गये हैं। इसलिए 1809 का Ombudsman आज के लिए एक्सपायर मेडिसन बन गया है। यदि लोकपाल जैसे संस्थान से भ्रष्टाचार खत्म करने की नियति हो, तो आवश्यक है कि लोकपाल के पदस्थापन की प्रक्रिया वह नहीं होनी चाहिए जो 200 साल पहले अपनाई गई थी।

16 यह कि जिन देशों (Sweden, Austria, Burkina faso, Denmark, Finland, The Netherland, Poland, Portugal, Spain, New Zealand,) ने 1809 का लोकपाल अपने-अपने देशों में बैठाया है, उससे कुछ लोगों को रोज़गार तो मिल रहा है और वह औद्योगिक घरानों को सरकार पर शासन करने का माध्यम तो बन गया है, लेकिन उन देशों को भ्रष्टाचार से निजात नहीं दिला पाया है। इसका प्रमाण देखना तो विश्व के भ्रष्टतम देशों की अंतर्राष्ट्रीय सूची देखें। लोकपाल युक्त देशों और लोकपाल मुक्त देशों में कोई गुणात्मक अंतर नहीं आया है।

17 यह कि लोकपाल के गठन का जो विधेयक विधि मंत्रालय ने पेश किया है और मीडिया जिस विधेयक का प्रचार कर रहा है- दोनों में लोकपाल संस्थान वास्तव में सर्वोच्च न्यायालय का ही विस्तार है, या सर्वोच्च न्यायालय का ही भ्रष्टाचार निरोधक प्रकोष्ठ है। इसकी स्वायत्ता कुछ मानवाधिकार आयोग से मिलती-जुलती है। फिर ऐसा संस्थान, जो न तो लोगों द्वारा चुना जाएगा, न लोगों के प्रति उत्तरदायी होगा, न लोगों के पालन-पोषण का काम करेगा- तो उसे लोकपाल शब्द से पुकारा ही क्यों जाना चाहिए? यदि विधेयक में लोकपाल लोगों द्वारा चुना जाये, केवल भ्रष्टाचार ही नहीं, अपितु लोगों के पालन-पोषण करने का व उन्हें आर्थिक न्याय देने का, उपभोकवाद व प्रदर्शन प्रभाव में देश के धन की बर्बादी रोकने का भी काम करे, वह लोगों को रोज़गार देने का वायदा करने वाला संस्थान होने की बजाय लोगों के अभिभावक के रूप में भी काम करे- तो उसे “लोकपाल” शब्द से पुकारना उचित होगा, अन्यथा इस संस्थान को लोकपाल की बजाय भ्रष्टाचार निरोधक सर्वोच्च परिषद कहना ही उचित व सार्थक होगा।

18 भ्रष्टाचार जिन व्यवस्थागत कारणों व परिस्थितियों को सुधारने के लिए कोई प्रावधान सरकार व मीडिया द्वारा प्रचारित दोनों ही विधेयकों में नहीं दिया गया है। भ्रष्टाचार का फोडा बना रहे, केवल मवाद के ऊपर मोटी पट्टी बांधने की कवायद दोनों ही तरह के विधेयकों द्वारा की जा रही है। अत: याचिकाकर्ता को विधेयक नये मसौदे को देने की ज़रूरत पडी।

19 यह कि व्यवस्थागत भ्रष्टाचार के शिकार देश के गरीबी रेखा के नीचे (बीपीएल) व गरीबी रेखा के ऊपर (एपीएल) समुदाय के लोग व्यवस्थागत भ्रष्टाचार के शिकार हैं, जिनकी चिंता साकार व मीडिया- दोनों के विधेयकों में दिखाई नहीं पड रही है। अत: भ्रष्टाचार से पीडित देश की 80 फीसदी जनसंख्या को इन दोनों ही विधेयकों से कोई लाभ नहीं हो सकता।

20 लोकपाल के चयन की प्रक्रिया जो सरकारी विधेयक में दी गई है, वह निरर्थक है, इससे भ्रष्टाचार के किसी आरोपी को सज़ा मिल पाना लगभग असंभव है। लोकपाल के चयन की जो प्रक्रिया मीडिया द्वारा प्रचारित विधेयक में दी गई है, वह अव्यवहारिक, अनावश्यक राष्ट्र की सुरक्षा के लिए खतरनाक है।

21 यह कि यह याचिका अनैतिक व अनुचित तरीके से गठित और सरकार को ब्लैकमेल करके ज़बरदस्ती बनवाई गई बिल ड्राफ्टिंग कमेटी के समक्ष प्रस्तुत करके यचिकाकर्ता अपनी लोकतांत्रिक व संवैधानिक समझ पर लोगों को सवाल उठाने का अधिकार नहीं देना चाहते, अत: यह याचिका महामहिम के समक्ष प्रस्तुत की जा रही है।

प्रार्थना

उक्त तथ्यों व विश्लेषणों के प्रकाश में महामहिम से निम्नलिखित प्रार्थना है-

1 लोकपाल पर विधि मंत्रालय द्वारा पेश विधेयक – 2010 को अमान्य किया जाये।

2 मीडिया द्वारा सरकार को ब्लैकमेल करके जो अधिसूचना (असाधारण गजट, भाग-एक, सेक्शन-एक, स0.- 1(42)/2004 वि.-1, 8 अप्रैल, 2011) निकाली गई , उसे रद्द किया जाये।

3 केवल तुष्टिकरण के लिए विधेयकों के निर्माण की वह प्रक्रिया रद्द किया जाये, जिस प्रक्रिया के तहत उक्त अधिसूचना के माध्यम से लोकपाल विधेयक ड्राफ्टिंग कमेटी का गठन किया गया है।

4 लोकपाल संस्थान का गठन अवश्य किया जाये, किंतु वह लोगों का पालन-पोषण करने वाला हो, लोगों को सामाजिक सुरक्षा सुनिश्चित करने वाला संस्थान हो, न कि औद्योगिक घरानों को सरकार पर शासन करने का व देश के गरीबों/गुलामों पर आर्थिक अत्याचार करने का माध्यम बनने वाला हो।

5 जो काम लोकपाल से कराया जाना प्रस्तावित है, उस काम के लिए लोकपाल से अलग एक दूसरा संस्थान बनाया जाये, जिसे भ्रष्टाचार निरोधक सर्वोच्च परिषद या एण्टी करप्शन एपेक्स बोर्ड कहा जाये

6 भ्रष्टाचार निरोधक संस्थान/लोकपाल का गठन करने संबन्धी विधेयक में इस याचिका के साथ संलग्न याचिकाकर्ता द्वारा तैयार लोकपाल विधेयक के सुझावों को ध्यान में रखा जाये।

7 यह कि केन्द्र सरकार द्वारा पेश लोकपाल विधेयक-2010 के जो प्रावधान इस याचिका में दिये गये सुझावों व इस याचिका के साथ संलग्न लोकपाल विधेयक के किसी प्रावधान को सीमित करते हों, उन प्रावधानों को शून्य माना जाये व सरकार द्वारा पेश लोकपाल विधेयक-2010 के शेष प्रावधानों को स्वीकार कर लिया जाये।

8 यह कि मीडया द्वारा प्रचारित जनलोकपाल विधेयक-2011 के जो प्रावधान इस याचिका में दिये गये सुझावों व इस याचिका के साथ संलग्न लोकपाल विधेयक के किसी प्रावधान को सीमित करते हों, उन प्रावधानों को शून्य माना जाये व मीडया द्वारा प्रचारित जनलोकपाल विधेयक-2011 के शेष प्रावधानों को स्वीकार कर लिया जाये।

9 भ्रष्टाचार निरोधक संस्थान/लोकपाल के गठन की प्रक्रिया में याचिकाकर्ता को विधेयक के अपने प्रावधानों के स्पष्टीकरण के लिये व्यक्तिगत रूप से बुलाया जाये।

10 याचिकाकर्ता की इस याचिका पर राष्ट्रपति भवन की ओर से क्या कार्यवाही की गई, महामहिम यह जानकारी याचिकाकर्ता को समय रहते देने की क्रिपा करें।

(भरत गांधी)

09 मई, 2011

नई दिल्ली

संलग्नक: याचिकाकर्ता संगठन द्वारा तैयार भ्रष्टाचार निरोधक सर्वोच्च परिषद या एण्टी करप्शन एपेक्स बोर्ड/लोकपाल (गठन) विधेयक- 2011

Democratic Bill on Lokpal

लोकपाल पर लोकतान्त्रिक विधयेक

Democratic Bill on Lokpal

(Submitted to the President of India on 9th May 2011,7.40 pm)

2011 का विधेयक संख्यांक .........

विषय सूची

1 प्रारम्भिक

2 भ्रष्टाचार की प्रेरक शक्तियों की पहचान

3 व्यवस्था भ्रष्टाचार उन्मूलन के लिए उपबंध

4 सम्पत्ति की झूठी घोषणा करने से रोकने व काले धन पर अंकुश लगाने संबंधी उपबंध

5 वोटरों के साझे परिश्रम के पैदा हो रही रकम का समान वितरण सुनिश्चित करने हेतु मतकर्ताओं की रिज़र्व बैंक

6 मतकर्ताओं की संचित निधि

7 रिश्वत लेने वाले स्थायी व अस्थायी कार्यपालिका के लोगों को अनुशासित व दण्डित करने संबन्धी उपबन्ध

8 रिश्वत देने वालों को अनुशासित व दण्डित करने संबन्धी उपबन्ध

9 हर तरह के भ्रष्टाचार को नियंत्रित करने हेतु उपलोकपालों व केन्द्रीय लोकायुक्तों की नियुक्ति

10 लोकपाल के लिए वित्तीय प्रबन्ध

11 प्रधानमंत्री के पद को लोकपाल के दायरे में लाने सम्बन्धी उपबन्ध

12 निर्वाचित लोकपाल की शक्तियां

13 लोकपाल के पद पर पदासीन होने के लिए अर्हताओं सम्बन्धी उपबन्ध

14 लोकपाल को उसके पद से हटाने सम्बन्धी उपबन्ध

उददेश्य व कारणों का कथन

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लोकपाल (गठन) बिल – 2011 का हिन्दी रूपांतर

श्री भरत गांधी व अन्य याचिकाकर्ताओं

का

भ्रष्टाचार निरोधक सर्वोच्च परिषद या एण्टी करप्शन एपेक्स बोर्ड/लोकपाल (गठन) विधेयक- 2011

कम से कम परिश्रम से अधिक से अधिक सम्पत्ति का स्वामित्व हासिल करने के लिए शासकीय क्षेत्र में कार्यरत लोगों को रिश्वत देने, रिश्वत देने के लिए विवश करने, शासकीय क्षेत्र में कार्यरत लोगों द्वारा रिश्वत लेने, रिश्वत लेने के लिए विवश करने वाले व्यक्तियों व संस्थानों को अनुशासित व दण्डित करने के लिए लोकपाल के नाम से अपना काम करने में समक्ष एक संस्थान गठित करने के उददेश्य से निर्मित विधेयक

भारत गणराज्य से बासठवें वर्ष में संसद द्वारा निम्नलिखित रूप में अधिनियमित हो:

अध्याय – एक

प्रारम्भिक

1) इस अधिनियम का सन्क्षिप्त नाम भ्रष्टाचार निरोधक सर्वोच्च परिषद या एण्टी करप्शन एपेक्स बोर्ड / लोकपाल (गठन) अधिनियम 2011 होगा।

2) यह उस तारीख को तुरंत प्रवृत होगा, जिसे केंद्र सरकार राजपत्र में अधिसूचना द्वारा, नियत करे।

3) इसका विस्तार पूरे भारतीय राज्यक्षेत्र में होगा।

4) परिभाषायें-

A मतकर्ता- मतदाता शब्द का शुध्ध हिन्दी रूपांतरण।

B वोटरशिप – मतकर्ताओं के साझी उद्यम से पैदा आय मे उनको नियमित मिलने वाली नकद रकम।

C गुलाम- सस्ते निर्यात व विकास के लिये कष्टात्मक काम करने के लिये कानूनों द्वारा पाले गये गरीबी रेखा के नीचे व ऊपर के बहुसंख्यक आम नागरिक।

अध्याय – दो

भ्रष्टाचार की प्रेरक शक्तियों की पहचान

1) कम से कम परिश्रम में या बिना किसी परिश्रम के अधिक से अधिक धनार्जन को संभव बनाने वाला किसी व्यक्ति का कोई भी आचरण, कोई भी कानून, या संविधान का कोई भी अनुच्छेद भ्रष्टाचार की प्रेरक शक्ति माना जाएगा, जो मानव स्वभाव के साथ मिलकर व्यक्ति को भ्रष्टाचार करने की प्रेरणा देता हो।

2) देश में प्रचलित असीमित उत्तराधिकार, उपहार, दान, ब्याज के धन्धे, पैसे, ज़मीन, मशीन, मकान... जैसी पूंजी की किरायेदारी और शासकीय-प्रशासकीय प्रतिष्ठानों में प्रचलित रिश्वतखोरी को उक्त अनुच्छेद 2 के अधीन भ्रष्टाचार को प्रोत्साहन देने वाले आचरण या कानून माने जाएंगे।

3) सरकार भ्रष्टाचार को प्रोत्साहन देने वाले व्यक्तियों के आचरणों, कानूनों व संवैधानिक प्रावधानों को इस तरह संशोधित करने का विधेयक सदन में समय-समय पर पेश करेगी, जिससे देश में बिना मानवीय श्रम से, या पूंजी की शक्ति से पैदा होने वाले धन का सभी नागरिकों में समान वितरण होता हो और शासकीय कर्मचारियों सहित किसी भी व्यक्ति को बिना परिश्रम के धनार्जन या कम से कम परिश्रम से अधिक से अधिक धनार्जन का पहले से प्राप्त अवसर समाप्त होता हो व नया अवसर पैदा न होता हो।

अध्याय – तीन

व्यवस्था भ्रष्टाचार उन्मूलन के लिए उपबंध

1) सम्पत्ति सम्बंधी कानूनों में सुधार करके किसी ब्यक्ति के पास मौज़ूद निजी सम्पत्ति के केवल उतने ही अंश का स्वामित्व उसके पास रहने दिया जाये, जो सम्पत्ति उसके निजी परिश्रम से प्राप्त हुई हो।

2) साझे परिश्रम के प्राप्त निजी आय और उस निजी आय से बनी सम्पत्ति को जिन कानूनी प्रावधानों से निजी सम्पत्ति का कानूनी दर्जा मिलता हो, उन सभी कानूनी प्रावधानों को भ्रष्ट कानूनों का दर्जा दिया जायेगा और उन कानूनों का सुधार कर निजी सम्पत्ति के उस अंश को नागरिकों की साझी सम्पत्ति का दर्जा दिया जायेगा, जो सम्पत्ति साझे प्रयासों से पैदा होती है, किंतु भ्रष्ट कानूनों के कारण निजी हाथों में चली जाती है।

3) उत्तराधिकार जैसे कानूनों को सुधारा जायेगा, जो भ्रष्टाचार करने के लिए लोगों को मनोविज्ञानिक प्रोत्साहन देते हैं और भ्रष्टाचार से प्राप्त रकम की सुरक्षा और अगली पीढी में हस्तांतरित करने का अवसर देते हैं।

4) इस अधिनियम के अनु0 2 व 3 के सहारे सरकार देश में पूंजी की शक्ति से पैदा हो रहे जी0 डी0 पी0 के हिस्से का आकलन करेगी, और इसे साझा धन व साझी सम्पत्ति की कोटि की सम्पत्ति मानकर नकद रूप में सभी मतकर्ताओं में वोटरशिप के रूप में नियमित वितरित करने के लिए आवश्यक सभी कदम उठाएगी, जिससे पूंजी से पैदा होने वाला धन भ्रष्ट तरीके से बिना किसी मेहनत के पूंजीधारकों को ही न मिलता रहे, अपितु सभी व्यस्क नागरिकों में बंट जाये।

5) लोकसभा के गठन में चुनाव प्रणाली को त्यागना व सरकारी कर्मचारियों व नागरिकों को संगठन बनाने का अधिकार छीनना चूंकि राजनैतिक लोकतंत्र के लिए नुकसानदेह होगा और बिना ऐसा किये शासकीय कर्मचारियों को उनके भ्रष्टाचार के आचरण के खिलाफ कठोर दण्ड देना संभव नहीं है। अत: सरकार अपने उन मंत्रालयों व विभागों की पहचान करेगी, जिनका विकल्प बाज़ार में मौज़ूद है, उनके पास क्रयशक्ति की मौज़ूदगी होने पर हर नागरिक बाज़ार से उन सेवाओं को खरीद सकता हो। सरकार इन मंत्रालयों ब विभागों को बन्द कर देगी और उन पर हो रहा व्यय सीधे मतकर्ताओं को वोटरशिप की रकम में जोडकर दे देगी।

6) उक्त अनु0 5 व 6 के लागू करने के बाद भी कुछ लोगों को उक्त अनु0 2 व 3 के अंतर्गत भ्रष्टाचार की रकम प्राप्त करते हुए पहचाना जा सकता है। इसलिए सभी नागरिकों के लिए अनिवार्य होगा कि वे सम्पत्ति की स्वघोषणा प्रणाली द्वारा अपनी सम्पत्ति के मूल्य की घोषणा करे व उस मूल्य पर ब्याज की दय से नियमित सम्पत्ति कर दें।

7) औसत से आधी संपत्ति पर हर नागरिक का मूलाधिकार माना जाये और इससे अधिक संपत्ति पर राष्ट्रपिता महात्मा गांधी के ट्रष्टीशिप का सिध्धांत लागू करके औसत से ज्यादा संपत्ति पर कब्जा रखने वालों को औसत से ज्यादा संपत्ति का किरयेदार घोषित कर दिया जाये। जिन राष्ट्रपुत्रों (लोगों) के पास औसत से ज्यादा संपत्ति है, वे लोग औसत से कम संपत्तिधारक राष्ट्रपुत्रों को किराया दें, यह किराया वोटरशिप के नाम से नागरिकों के बैंक खाते तक पहुंचाने के लिये सरकार कानून बनायेगी।

8) राजनीतिक दलों व अन्य संगठनों के माध्यम से राजनीतिक, सामाजिक व संवैधानिक सुधार का काम करने वालों को भारत की संचित निधि से वेतन-भत्ता देने संबंधी कानून बनाया जाये। जिससे सामाजिक-राजनीतिक कार्यकर्ता धनवानों के लिए काम करने की बजाय पूरे समाज के लिए काम कर सकें और जिससे सामाजिक व राजनीतिक कामों के लिए कायम भ्रष्टाचार की अर्थव्यवस्था को हटाया जा सके व सदाचार की अर्थव्यवस्था लाया जा सके।

अध्याय – चार

सम्पत्ति की झूठी घोषणा करने से रोकने व काले धन पर अंकुश लगाने संबंधी उपबंध

9) आयकर रिटर्न सम्बन्धित दस्तावेजों को भी सूचना के अधिकार के दायरे में लाने के लिये कानूनी उपाय किया जायेगा।

10) किसी व्यक्ति व संस्थान द्वारा स्वघोषित सम्पत्ति का 20 प्रतिशत अधिक कीमत देकर सम्पत्ति का अधिग्रहण करने का अधिकार सरकार के पास है। अधिग्रहण करने का यह अधिकार शासन के साथ-साथ निजी व्यक्तियों व संस्थानों को भी देने का भी कानून बनाया जाये, जिससे सम्पत्ति की झूठी घोषणा करने से लोग डरें।

11) परिषद अध्यक्ष/ लोकपाल को यह अधिकार हो कि सम्पत्ति की घोषणा करने वाले किसी भी व्यक्ति व किसी भी संस्थान की सम्पत्ति को उस व्यक्ति या उस संस्थान को हस्तगत करने का आदेश दे दे, जो संबन्धित सम्पत्ति की 20 प्रतिशत अधिक रकम सम्पत्ति के स्वामी के खाते में जमा कराके सम्पत्ति के स्वामित्व के लिए परिषद अध्यक्ष के कार्यालय में आवेदन दिया हो। ऐसा करके आयकर विभाग को सम्पत्ति की घोषणा में भ्रष्टाचार करने वालों के मन में डर बैठेगा और काले धन पर अंकुश लगेगा।

12) कोई भी व्यक्ति अपनी उसी सम्पत्ति के स्वामित्व का अंतरण कर सकता है, जो कम से कम पांच वर्ष पहले से हर वित्तीय वर्ष में उस सम्पत्ति के बाज़ार मूल्य की जानकारी एक सार्वजनिक हलफनामे के माध्यम से इस शर्त के साथ देता रहा हो कि यदि उसके द्वारा अपनी सम्पत्ति की लगाई गई कीमत से 20 प्रतिशत अधिक रकम कोई भी दूसरा व्यक्ति या संस्थान उसके निजी खाते में जमा कर देगा तो सम्बंधित सम्पत्ति का स्वामित्व ऐसी रकम जमा करने वाले के नाम स्वत: अंतरित समझा जाएगा।

13) यदि किसी व्यक्ति की सम्पत्ति का स्वामित्व उक्त अनुच्छेद के अधीन किसी अन्य व्यक्ति या संस्थान के पास स्थानांतरित हो जाता है, किंतु वह सम्पत्ति का कब्जा अपने पास बरकरार रखना चाहता है तो उसे सम्पत्ति के नये स्वामी के खाते में मूल्य वर्धित सम्पत्ति के नये मूल्य का कम से कम 20 प्रतिशत रकम जमा करना होगा।

14) कोई व्यक्ति या संस्थान किसी सम्पत्ति का उपयोग भी न करता हो, और कोई अन्य भी उसका उपयोग न कर पाये, इस नियति से वह अपनी सम्पत्ति का मूल्य उक्त अनुच्छेद के अधीन बढा-चढा कर घोषित न कर सके, इसके लिए उसे सम्पत्ति के मूल्य की घोषणा करने वाले हलफनामे में यह भी घोषित करना होगा कि वह सम्पत्ति का जो मूल्य घोषित कर रहा है, उस मूल्य का उतना प्रतिशत कर के रूप में हर वर्ष संघीय शासन के कोष में मतकर्ताओं में वोटरशिप के रूप में वितरित करने के उददेश्य से जमा करता रहेगा, जितनी ब्याज दर समकालीन होगी।

अध्याय – पांच

वोटरों के साझे परिश्रम के पैदा हो रही रकम का समान वितरण सुनिश्चित करने हेतु मतकर्ताओं की रिज़र्व बैंक

15) विनिमय की नीति का निर्माण व संचालन मतकर्ताओं के निजी आर्थिक हितों के अनुसार भी हो, इस उददेश्य को प्राप्त करने के लिए व वोटरशिप का पारदर्शी वितरण सुनिश्चित करने के लिए भारतीय रिज़र्व बैंक के समानांतर मतकर्ताओं की एक रिज़र्व बैंक की स्थापना की जाएगी।

16) मतकर्ताओं की रिज़र्व बैंक के अधिकार व कर्त्तव्य भारत की रिज़र्व बैंक के ही समकक्ष होंगे।

17) मतकर्ताओं की रिज़र्व बैंक भारत के रिज़र्व बैंक के किसी भी ऐसे कदम पर रोक लगा सकेगा, जो उसकी नज़र में मतकर्ताओं के निजी आर्थिक हितों को क्षति पहुंचाता हो।

18) मतकर्ताओं की रिज़र्व बैंक का व्यय भारत की संचित निधि पर भारित होगा।

19) मतकर्ताओं के निजी हित में मतकर्ताओं की रिज़र्व बैंक कुछ करेंसी नोट भी जारी कर सकेगा।

20) मतकर्ताओं की रिज़र्व बैंक के लिए केवल लोकसभा को ही विधियां बनाने का अधिकार होगा, ऐसे विधेयकों पर राष्ट्रपति व राज्यसभा की सहमति अनिवार्य नहीं होगी, जिससे यह बैंक लोकपथ से व अपने मूल उद्देश्य से विक्षेपित न हो पाये।

अध्याय – छह

मतकर्ताओं की संचित निधि

21) भारत की संचित निधि के समानांतर मतकर्ताओं की संचित निधि होगी जो औसत से अधिक सम्पत्ति रखने वालों पर कर लगा कर साझे धन के रूप में इकठ्ठा किया जाएगा।

22) मतकर्ताओं की संचित निधि से ही वोटरशिप का नियमित भुगतान किया जाएगा।

23) मतकर्ताओं की संचित निधि मतकर्ताओं के लिए मतकर्ताओं की ओर से भारत सरकार इकठ्ठा करेगी, जिसको मतकर्ताओं द्वारा स्वयं अपनी इच्छा से ही व्यय किया जाएगा।

अध्याय – सात

रिश्वत लेने वाले स्थायी व अस्थायी कार्यपालिका के लोगों को अनुशासित व दण्डित करने संबन्धी उपबन्ध-

24) लोकपाल स्वत: किसी भी शासन-प्रशासन के कर्मचारी, अधिकारी व मंत्री यहाँ तक कि प्रधानमंत्री के विरुद्ध भ्रष्टाचार संबन्धी शिकायत पंजीकृत कर सकता है।

25) दर्ज शिकायत की निर्धारित प्रक्रिया से जाँच करेगा।

26) इस तरह की जाँच यथाशक्य कार्यपालिका, विधायिका व न्यायापालिका के किसी भी प्राधिकारी, देश व विदेश के किसी भी राजनैतिक व अराजनैतिक संगठन, फर्म व कम्पनी के प्राधिकारी से प्रभावित नहीं होगी। यदि किसी भी तरह से प्रभावित होता हुआ महसूस करेगा, तो ऐसे प्रयासों को निष्प्रभावी बनाने के लिए सक्षम विधेयक बनाकर लोकपाल संसद के सक्षम रखेगा। ऐसा विधेयक दो तिहाई बहुमत से पारित होकर कानून का दर्जा प्राप्त करेगा।

27) भ्रष्टाचार के आरोपों के लिए भारतीय दण्ड संहिता निर्धारित दण्ड को लोकपाल यदि और भी कठोर बनाना उचित समझता है तो इस आशय की सिफारिश वह भारत के कानून मंत्रालय को करे।

28) रिश्वत के मामलों में हमेशा कम से कम दो पक्ष होते है, दोनों को समान रूप से दोषी माना जाये अत: जब तक रिश्वत देने वाले की पहचान नहीं कर ली जाती, तब तक रिश्वत लेने वाले को भी दण्डित नहीं किया जाएगा।

अध्याय – आठ

रिश्वत देने वालों को अनुशासित व दण्डित करने संबन्धी उपबन्ध-

29) रिश्वत लेने के लिए विवश करने वाले का अपराध रिश्वत लेने वाले के द्वारा कारित अपराध के समकक्ष माना जाएगा, इसलिए उसको भी वही दण्ड दिया जाएगा, जो दण्ड संबन्धित मामले में रिश्वत लेने वाले को दिया गया है।

30) रिश्वत देने के लिए विवश किया जा रहा व्यक्ति रिश्वत देने का अपराध नहीं करेगा। वह रिश्वत देने के लिए विवश करने वाले व्यक्ति की शिकायत लोकपाल के कार्यालय में करेगा। यदि वह अपना काम कराने के नाम पर रिश्वत दे देता है, तो उसको भी वही दण्ड दिया जाएगा, जो दण्ड संबन्धित मामले में रिश्वत लेने वाले को दिया गया है।

31) शासन- प्रशाशन के निचले पांवदानों पर सरकारी क्षेत्र के लोग रिश्वत देने के लिए गैर सरकारी लोगों को अधिक मामलों में विवश करते है। इसके विपरीत राजनीति की अर्थव्यवस्था न बन पाने के कारण शासन-प्रशाशन के ऊंचे पांवदानों पर गैर सरकारी लोग सरकारी क्षेत्र के लोगों को रिश्वत देने के लिए अधिक मामलों में विवश करते है। इसलिये निचले पांवदानों पर रिश्वत देने के लिए विवश व्यक्ति अपील में अपनी विवशता सिद्ध करके सजा से मुक्ति पा सकता है, किंतु इस तरह के अपील का अधिकार ऊंचे पांवदानों पर घटी भ्रष्टाचार के मामलों मे रिश्वत देने वाले व्यक्ति को प्राप्त नहीं होगा।

अध्याय – नौ

हर तरह के भ्रष्टाचार को नियंत्रित करने हेतु उपलोकपालों व केन्द्रीय लोकायुक्तों की नियुक्ति

32) हर तरह के भ्रष्टाचार को नियंत्रित करने हेतु और लोकपाल के काम में किसी भी व्यक्ति व किसी भी संस्थान द्वारा दखल की सम्भावना रोकने हेतु लोकपाल अपने अधीन चार उपलोकपालों की नियुक्ति करेगा।

1 पहला उपलोकपाल राजनीतिक दलों से जुडे लोगों व सरकारी कर्मचारियों पर लगे भ्रष्टाचार के आरोपों में जांच करने, लोकपाल के काम में दखल देने से रोकने, रिश्वत लेने वालों को अनुशाशित व दण्डित करने के लिये काम करेगा। इसे उपलोकपाल – राजनीतिक व प्रशासनिक मामले कहा जाएगा।

2 दूसरा उपलोकपाल संसद द्वारा परिभाषित अमीरी रेखा के ऊपर के आयकरदाताओं को दखल देने से रोकने के लिए काम करेगा। वह रिश्वत देने वालों को दण्डित करने के लिये काम करेगा। वह बडे औद्योगिक घरानों व औद्योगिक संगठनों को भ्रष्टाचार में लिप्त होने संबन्धी कृत्यों के मामलों में उनको अनुशासित व दण्डित करने के लिये काम करेगा। इसे उपलोकपाल – आर्थिक मामले कहा जाएगा।

3 तीसरा उपलोकपाल विदेशों के संबंध रखने वाले व विदेशों से सुरक्षा पाने वाले देश व विदेश के नेताओं, अधिकारियों, उद्योगपतियों व व्यापारियों और राजनीतिक, सांस्कृतिक व वित्तीय संस्थानों को भ्रष्टाचार में लिप्त होने संबन्धी कृत्यों के मामलों में उनको अनुशासित व दण्डित करने के लिये काम करेगा। वह ऐसे अंतर्राष्ट्रीय संस्थानों के गठन करने के लिए विधायी प्रावधानों की सिफारिश करेगा, जो संस्थान उन अंतर्राष्ट्रीय कानूनों व सन्धियों को निष्प्रभावी बना सकें- जो कानून व जो सन्धियां भ्रष्टाचार के माध्यम से हासिल रकम की और दूसरे देशों के भ्रष्ट लोगों की सुरक्षा करते है। इसे उपलोकपाल – विदेशी मामले कहा जाएगा।

4 चौथा उपलोकपाल देश में प्रचलित उन कानूनों और उन मूल्यों की समीक्षा करेगा और संबन्धित कानूनों व मूल्यों में संशोधन तैयार करके सरकार को कार्यवाही के लिए प्रेषित करेगा; जिन कानूनों व मूल्यों के कारण भ्रष्टाचार करने के लिए लोगों को प्रेरणा मिलती है।

33) अपने काम में सहायता के लिये प्रत्येक उपलोकपाल अपने अधीन दो-दो लोकायुक्तों की नियुक्ति करेंगे, जिसे केन्द्रीय लोकायुक्त कहा जाएगा।

अध्याय – दस

लोकपाल के लिए वित्तीय प्रबन्ध

34) चूंकि कोई भी संस्थान व व्यक्ति प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से ऐसे व्यक्ति व ऐसे संस्थान द्वारा प्रभावित अवश्य होता है, जिससे अपने खर्च के लिए वह धन प्राप्त करता है। यदि लोकपाल व उसका सचिवालय भारत की संचित निधि से धन प्राप्त करेगा, तो वह भारत सरकार से प्रभावित हुए बिना नहीं रह सकता। यदि वह सम्पन्नतम वर्ग से धन प्राप्त करेगा तो यह वर्ग लोकपाल को अपने निजी हित में उपयोग करेगा। अत: लोकपाल का वित्तीय प्रबन्ध करने के लिए भारत की संचित निधि के समानांतर एक नया कोष बनाया जाएगा, जिसे लोकनिधि कहा जाएगा।

35) लोकनिधि देश के समस्त व्यस्क नागरिकों की उस आय के एक अंश के रूप में वसूल की जाएगी जो आय भारत सरकार उसके बैंक खाते में देश की साझी सम्पत्ति का हिस्सेदार होने के नाते किराये के रूप में नियमित भेजेगी।

अध्याय – ग्यारह

प्रधानमंत्री के पद को लोकपाल के दायरे में लाने सम्बन्धी उपबन्ध –

36) चूंकि राष्ट्रपति, मुख्य न्यायधीश, लोकसभा अध्यक्ष और प्रधानमंत्री का पद राज्य की सर्वोच्च सत्ता का प्रतिनिधित्व करते हैं किंतु समय बीतने के साथ साथ बढी शिक्षा व तकनीकि ने इनके कार्यों से जनता के कुछ अंश को असंतुष्ट किया है। ऐसी स्थिति में चुनाव की किसी ऐसी प्रणाली की ज़रूरत आ पडी है, जिससे राज्य के इन घटकों के कामों से समाज के सभी वर्ग संतुष्ट हो सकें। जब तक ऐसी किसी चुनाव प्रणाली को खोजा नहीं जाता तब तक के लिए आवश्यक हो गया है कि लोकपाल जैसा आपात प्रबन्ध करके प्रधानमंत्री के पद को लोकपाल के दायरे में लाकर कम से कम भ्रष्टाचार जैसी समस्या पर प्रभावशाली अंकुश लगाया जाये।

37) लोकपाल का गठन और उसके दायरे में प्रधानमंत्री का पद लाना और लोकतंत्र तथा भारत के संविधान के मूल ढांचे को बनाए रख पाना तभी सम्भव है, जब लोकपाल के पद का लोकतांत्रिक मूल्य प्रधानमंत्री के पद के लोकतांत्रिक मूल्य से अधिक हो। और जिससे कार्यपालिका व विधायिका पर शासन करने के लोकपाल के अधिकारों को लोकतांत्रिक व तर्कसम्मत ठहराया जा सके। ऐसा तभी सम्भव है, जब लोकपाल की गठन की प्रक्रिया प्रधानमंत्री के पद के चयन से अधिक लोकतांत्रिक हो। चूंकि प्रधानमंत्री के चुनाव में संसद सदस्य भाग लेते हैं अत: आवश्यक है कि लोकपाल के चयन में सांसदों से अधिक संख्या में मौज़ूद विधायक या ब्लाक प्रमुख भाग लें। चूंकि विधायकों को मुख्यमंत्री चुनने का अधिकार पहले से प्राप्त है इसलिए उनको दोहरा अधिकार देने से ज़्यादा बेहतर है कि लोकपाल का चुनाव सीधे देश के समस्त ब्लाक प्रमुखों के बहुमत से किया जाये। जिससे कार्यपालिका व विधायिका पर शासन करने के लोकपाल के अधिकारों को लोकतांत्रिक व तर्कसम्मत ठहराया जा सके। लोकपाल का चुनाव केवल वही व्यक्ति लड सकता हो, जो या तो सर्वोच्च न्यायालय का जज रहा हो, सर्वोच्च न्यायालय का जज बनने की योग्यता रखता हो।

38) लोकपाल की चयन प्रक्रिया में किसी भी ऐसे व्यक्ति की भूमिका व हस्तक्षेप न हो, जिसको किसी विदेशी सरकार व संस्थान ने पुरस्कृत किया हो। जिससे विदेशी ताकतें लोकपाल के माध्यम से प्रधानमंत्री कार्यालय का संचालन करने में सफल न होने पायें।

39) धन की व प्रचार माध्यमों की ताकत से लोकपाल प्रभावित नहीं होने पाये, इसके लिए संसद को यह अधिकार होगा कि वह अमीरी रेखा बनाकर देश में ऐसी क्षमता रखने वाले लोगों, संगठनों व संस्थाओं की जानकारी सार्वजनिक करेगी ब सरकार को उन पर विशेष नज़र रखने व समय-समय पर उचित कानूनों का मसौदा संसद के समक्ष रखने को कहेगी।

अध्याय – बारह

निर्वाचित लोकपाल की शक्तियां-

40) वह बडे से बडे राजनीतिक व व्यापारिक संगठनों, उद्योगपतियों, व्यापारियों, न्यायामूर्तियों, यहाँ तक कि प्रधानमंत्री को भी लोकसभा अध्यक्ष; राष्ट्रपति या उच्च व सर्वोच्च न्यायाधीश की अनुमति के बिना रिश्वत लेने या देने या भ्रष्टाचार के किसी अन्य तरीके के आरोप में स्वत: जाँच शुरू कर सकता है, व निर्धारित प्रक्रिया से स्वयं दण्डित भी कर सकता है।

41) लोकपाल तत्काल प्रभाव से जाँच में दखलन्दाजी रोकने के लिए आरोपी को जेल भेज सकता है।

42) बर्बरता की श्रेणी में आने के कारण लोकपाल किसी को भी किसी भी तरह के मामले में मृत्यु दण्ड नहीं दे सकता, किंतु अधिकतम 10 वर्ष की सज़ा दे सकता है।

43) भ्रष्टाचार के आरोपी के साथ-साथ भ्रष्टाचार के लिए उकसाने वाले को भी लोकपाल समान दण्ड से दण्डित करेगा, यदि उकसाने व प्रेरित करने वाला व्यक्ति की बजाय कोई कानून या संस्थान है तो ऐसे कानून या संस्थान को सुधारने से पूर्व भ्रष्टाचार के आरोपी को दण्ड नहीं दिया जाएगा।

44) भ्रष्टाचार के खिलाफ काम करने वालों को व जाँच में सहयोग देने वालों को लोकपाल पर्याप्त सुरक्षा देगा।

अध्याय – तेरह

लोकपाल के पद पर पदासीन होने के लिए अर्हताओं सम्बन्धी उपबन्ध –

45) लोकपाल का चुनाव केवल वही व्यक्ति लड सकता है, जो या तो सर्वोच्च न्यायालय का जज रहा हो, सर्वोच्च न्यायालय का जज बनने की योग्यता रखता हो।

46) अन्य योग्यताओं के अलावा लोकपाल केवल ऐसे ही व्यक्ति को बनाया जाये, जो पद ग्रहण की तारीख से ही अपने पास मौजूद सम्पत्ति के उस हिस्से को देश की संचित निधि में बेशर्ते दान देने की कानूनी घोषणा करे, जो चल व अचल सम्पत्ति उसके पास देश की औसत सम्पत्ति से अधिक है।

47) लोकपाल को देश की औसत आय से अधिक रकम वेतन व भत्तों के रूप में प्रतिबन्धित हो, जिससे वह देश के बहुमत की आर्थिक अपेक्षाओं से जुडा रह सके, इस पद के लिये चरित्र से कुछ अलग तरीके का व्यक्ति तलाशा जा सके व अल्पसंख्यक अभिजात्य वर्ग से प्रभावित होने से बचा रह सके।

48) पद पर स्थापित होने के बाद लोकपाल किसी भी तरह की सम्पत्ति न तो अपने बच्चों को उत्तराधिकार में दे सकता है और न तो किसी व्यक्ति या किसी संस्थान को दान में ही दे सकता है। इससे लोकपाल के पद पर वही व्यक्ति आसीन हो सकेगा, जो संतति व सम्पत्ति दोनों के मोह से मुक्त होगा। यही दोनों चीजें भ्रष्टाचार के मुख्य प्रेरणा स्रोत रहे हैं।

49) उप लोकपालों की नियुक्ति की प्रक्रिया उनके अलग- अलग स्वभाव के कामों के अनुरूप होगी, वे अलग- अलग क्षेत्रों से लिये जायेंगे। लोकपाल की भूमिका केवल शपथ दिलाने व समंवय बनने की होगी।

अध्याय – चौदह

लोकपाल को उसके पद से हटाने सम्बन्धी उपबन्ध –

50) राष्ट्रपति को लोकपाल को उसके पद से हटाने का अधिकार इस शर्त पर होगा, कि राष्ट्रपति के चुनाव की प्रणाली में सुधार करके उसको राष्ट्र्पाल बना दिया जाये और देश के गरीबी रेखा के नीचे रहने वाले व्यस्क नागरिकों को भी राष्ट्र्पति पद के लिए हो रहे चुनाव में मतकर्ता बनाया जाये। जिससे प्रतिनिधित्व से वंचित देश के गरीबों को कम से कम एक प्रतिनिधि मिल सके, राष्ट्रपति के पद का लोकतांत्रिक मूल्य लोकपाल से अधिक हो सके और जिससे लोकपाल पर शासन करने के राष्ट्र्पति के अधिकारों को लोकतांत्रिक व तर्कसम्मत ठहराया जा सके।

51) लोकपाल को हटाने के लिए राष्ट्र्पति को सिफारिश करने का अधिकार संसद को हो, बशर्ते संसद साधारण बहुमत से इस आशय का प्रस्ताव पारित करे।

उद्देश्य व कारणों का कथन

आज देखा यह जा रहा है कि भ्रष्टाचार के खिलाफ संघर्ष तेज हुआ है, भ्रष्टाचार उससे भी तेजी से बढा है, वस्तुत: इसका प्रमुख कारण भ्रष्टाचार और भ्रष्टाचारी लोगों को पहचानने में लगातार हो रही गलती है। जो लोग व्यक्ति के भ्रष्टाचार के खिलाफ घेराबन्दी कर रहे है, उन्हीं लोगों द्वारा व्यवस्था के भ्रष्टाचार को सहारा दिया जा रहा है।

सार्वजनिक क्षेत्र में व्याप्त भ्रष्टाचार को मीडिया के प्रयासों से लोग समाज के लिए बडा खतरा मानने लग गये हैं, किंतु वही मीडिया स्वयं अपने प्रबन्धकों द्वारा किए जा रहे, और करवाए जा रहे भ्रष्टाचार के दृश्य को सामने पडने पर अपनी पलकें झुका लेने के लिए अभिशप्त है। असीमित उत्तराधिकार संबन्धी विविध कानूनों के कारण सम्पन्न लोगों के बच्चे बिना कुछ किए-धरे ही बडी पूंजी के मालिक बन जाते हैं और उनकी तुलना में बहुत छोटी पूंजी का मालिकाना करने वली राजसत्ता उनके भ्रष्टाचार के सम्मुख घुटने टेकने के लिए मज़बूर है। आर्थिक सत्ताधीशों के ऊपर वर्तमान राजव्यवस्था में काम करने वाले राजनेताओं का वास्तविक नियंत्रण समाप्त हो गया है और परिणाम स्वरूप वर्तमान लोकतंत्र ब राज्य जनादेश से निर्देशित होने के बजाय धनी लोगों के धनादेश से निर्देशित हो रहे हैं।

डाक्टर, इंजीनियर, आई0 ए0 एस0, पी0 सी0 एस0, एम0 पी0, एम0 एल0 ए0; यानी सार्वजनिक क्षेत्र में काम करने वाले लोगों को अब यह बात समझ में आ गई है कि उत्तराधिकार कानून संबन्धी प्रावधानों के कारण ये अपने बच्चों के नाम सम्पत्ति ही स्थानांतरित कर सकते हैं, राष्ट्रप्रेम, कर्त्तव्यनिष्ठा व इमानदारी के आचरण से अर्जित डिग्री-डिप्लोमा, मान-सम्मान व प्रतिष्ठा नहीं। ये देखते है कि अरबपति का बेटा कानूनी प्रावधानों के कारण अरबपति बन सकता है लेकिन डाक्टर का बेटा डाक्टर नहीं बन सकता, उसे परीक्षा पास करनी पडती है। यह अनुभव लोगों को समाज व राष्ट्र के लिए काम करने की बजाय केवल बच्चों के लिए काम करने के लिए प्रेरित कर रहा है और ईमानदारी. राष्ट्रप्रेम व कर्त्तव्यनिष्ठा- सब कुछ निरर्थक बना दिया है। यदि सिद्धांत रूप में यह मान लिया जाए कि सबको अपने बच्चों के लिए ही काम करना चाहिए, तो भ्रष्टाचार करने वाला उसे कहा जाएगा जो राष्ट्र व समाज के लिए काम करता होगा। यदि कुछ लोगों को अपने पुत्रों के लिए ही काम करना चाहिए तो शेष लोगों को राष्ट्र, समाज व संस्कृति के लिए काम करने के लिए बाध्य कैसे किया जा सकता है? वस्तुत: शासकीय क्षेत्र में काम करने वालों पर जब भ्रष्टाचार का आरोप लगाया जाता है, तो वे अपने साथ इसी तरह की भेदभावपूर्ण बाध्यता महसूस करते हैं और कई लोग हो इसके खिलाफ विद्रोह करने के लिए भ्रष्टाचार को ही एक हथियार के रूप में उपयोग करने लगते हैं। उन्हें लगता है कि क्यों न उत्तराधिकार का कानून सीमित या समाप्त करके उद्योग-व्यापार जगत के लोगों पर भी अपने बच्चों की बजार अपने राष्ट्र के लिए काम करने की बाध्यता डाली जाये।

भष्टाचार की समस्या के इन सभी आयामों को देखते हुए, व भ्रष्टाचार के बढते बुखार को देखते हुए अब आवश्यक हो गया है कि जिन लोगों को भी बिना परिश्रम के आय प्राप्त हो रही हो, उन सभी को भ्रष्टाचार माना जाए। चाहे ऐसे लोग सरकारी क्षेत्र में कार्यरत हो, या उद्योग-व्यापार के क्षेत्र में। देश में बिना परिश्रम के पैदा हो रहे धन की गणना की जाए और इसे सभी मतकर्ताओं में वोटरशिप के रूप में बांट दिया जाये तो इस धन को हडपने के लिए बाज़ारवादियों व राज्यवादियों के बीच भ्रष्टाचार के नाम पर चल रही प्रतिस्पर्धा समाप्त हो जाएगी। आज तो बिना परिश्रम के अर्थव्यवस्था में पैदा होने वाले इस धन को हडपने के लिए उद्योग-व्यापार के लोग चाहते हैं कि पूंजी के किराये के नाम पर यह सारा धन उनके पास आ जाये और शासकीय क्षेत्र के लोग चाहते है कि रिश्वत के रास्ते यह धन उनके पास आ जाये। भ्रष्टाचार के खिलाफ संघर्ष करने वाले अधिकांश लोग या तो इस समस्या के सभी पहलूयों से अनजान है या जानबूझकर वाज़ारवादियों की झोली में बिना परिश्रम के पैदा होने वाला देश का सारा साझा धन उडेलने की साजिश कर रहे हैं। अत: स्पष्ट है कि भ्रष्टाचार के खिलाफ कुछ लोग सच्ची लडाई लड रहे है, जबकि कुछ लोग छदम लडाई लड रहे हैं।

भ्रष्टाचार के खिलाफ छदम लडाई के कारण अर्थव्यवस्था द्वारा पैदा हो रही संवृद्धि में नागरिकों की हिस्सेदारी की लडाई पीछे छूट जाती है। सार्वजनिक व साझे विकास के लिए जी0 डी0 पी0 का पर्याप्त हिस्सा राजस्व के रूप में जुटाने के लिए कौन-कौन से कर कितनी मात्रा में लगने चाहिए, यह बहस दब जाती है। भ्रष्टाचार के खिलाफ छदम लडाई लडने वाले लोगों के लिए यह ज़्यादा महत्त्वपूर्ण है कि 10 करोड रूपये के कर राजस्व में से भ्रष्टाचार में लीक होने वाला 4 करोड रूपये का सदुपयोग हो, भले ही चालिस करोड रूपया सम्पन्न लोगों के पास यू ही छोड दिया जाये। उसे कर के रूप में इकठ्ठा करके सार्वजनिक क्षेत्र की सेवा करने में ऐसे लोगों की कोई रुचि नहीं है। ऐसे लोग पांच करोड के लिए लडते हैं, लेकिन 40 करोड यू ही छोड देते हैं।

भ्रष्टाचार के खिलाफ छ्दम लडाई लडने वाले लोगों को उद्योग-व्यापार जगत के लोगों का उपभोक्तावाद, विलास, फिज़ूलखर्ची और पुत्रमोह में कानून की धज्जियां उडाने की प्रवृति – सब कुछ मंज़ूर है। आपत्ति बस इतनी है कि इस में एक भी कुकर्म शासकीय क्षेत्र में काम करने वाले लोग न करने पायें। वस्तुत: विधवा का वैधव्य पत्नी विहीन पुरुषों के संयम व सदाचार से ही चल सकता है। शासकीय क्षेत्र में काम करने वाले ईमानदार लोग उस विधवा की तरह है, जिसका वैधव्य उद्योग-व्यापार जगत के लंपट लोगों के द्वारा नष्ट किया जा रहा है। इस पूरे परिदृश्य में भ्रष्टाचार के खिलाफ आभासी और छदम संघर्ष करने वाले लोगों की जमात उस गंवई पंचायत की तरह है, जो विधवा के पेट में अवैध बच्चा देखकर उसे दण्डित कर रही है और लंपटों को साण्ड की तरह विधवाओं के मोहल्ले में छुट्टा घूमने के लिए छोड दे रही है। वहाँ जाकर वे भ्रष्टाचार का अगला कारनामा दिखा रहे हैं। इसलिए भ्रष्टाचार के खिलाफ कोई परिणाम न देने वाली लडाई एक पेशेवर लडाई बन गई है। इस विधेयक में भ्रष्टाचार को एक गम्भीर समस्या मानते हुए पक्षपात रहित उपाय सुझाए गये हैं।

नई दिल्ली

09 जुलाई, 2011 ]

(भरत गांधी व अन्य याचिकाकर्ता )