Saturday, May 14, 2011

Petition for Democratic Lokpal Bill to the President of India

लोकपाल पर राष्ट्रपति के समक्ष याचिका

Petition for Democratic Lokpal Bill to the President of India

(Submitted to the President of India on 9th May 2011,7.40 pm)

सेवा में,

महामहिम श्रीमती प्रतिभा देवी सिंह पाटिल,

राष्ट्रपति- भारत सरकार,

राष्ट्रपति भवन,

नई दिल्ली – 110001

विषय : ‘लोकपाल पर संविधानविदों व राजनीति सुधारकों द्वारा तैयार विधेयक (संलग्न) के विषय में ध्यानाकर्षण याचिका।

महोदया,

मैं इस पत्र के माध्यम से महामहिम के समक्ष ध्यानाकर्षण याचिका दायर करता हूँ। इस याचिका के माध्यम से मैं निम्नलिखित तथ्यों की तरफ सरकार का ध्यानाकर्षित करना चाहता हूँ। ये तथ्य इस प्रकार हैं-

1. यह कि शासन-प्रशासन चलाने में अब संसद व विधायिका की भूमिका गौण होती जा रही है, मीडिया के माध्यम से उद्योगपतियों व व्यापारियों की भूमिका बढती जा रही है। संसद में लोकपाल विधेयक पेश करने के लिए जिस प्रकार सरकार को ब्लैकमेल करके अधिसूचना जारी कराई गई है, यह अधिसूचना इस निष्कर्ष का ताजा उदाहरण है।

2 यह कि संसद में किस बात पर बहस होगी, यह बात अब बिज़नेस एडवाइज़री कमेटी (बीएसी) से ज्यादा मीडिया तय करने लगा है। इससे संसद अब जनता के सरोकारों पर बहस करने का मंच ही नहीं रह गया है। मतकर्ताओं के आर्थिक अधिकारों व समावेशी विकास की हमारी योजना पर लगातार लोकसभा में सन 2006 से बहस टाली जा रही है। इसके विपरीत मीडिया तिल को ताड बनाकर संसद में ऐसे विषयों पर बहस कराता रहा है, जो विषय जनता के लिए कम, मुठ्ठी भर मीडिया के मालिकों के लिए ज्यादा महत्त्वपूर्ण रहे हैं।

3 देश-विदेश के उद्योगपतियों व व्यापारियों ने मीडिया के नाम से स्वयं को लोकतंत्र का एक स्तम्भ पहले से घोषित कर रखा है। ऐसी दशा में मीडिया पर वह आचार संहिता लागू की जाये, जो लोकतंत्र के अन्य स्तम्भों पर पहले से लागू है। न्यायालय में विचाराधीन मामलों पर संसद विचार नहीं करती, इसी प्रकार संसद में विचाराधीन मामलों पर न्यायालय विचार नहीं करते। इस आचार संहिता के दायरे में मीडिया को भी लाने के लिए कानून बनाया जाये, जिससे यह स्थापित हो सके कि मीडिया में विचाराधीन मामले संसद व न्यायालय – दोनों में विचार नहीं किये जाएंगे और संसद व न्यायालयों में विचाराधीन मामलों पर मीडिया टिप्पणी नहीं करेगा। इस तरह के कानूनों से मीडिया का कार्यक्षेत्र परिभाषित हो सकेगा, कार्यपालिका, न्यायापालिका व विधायिका में उसके दखल को नियंत्रित किया जा सकेगा और मीडिया का उत्तरदायित्व तय किया जा सकेगा। लोकपाल विधेयक के लिए अधिसूचना (असाधारण गजट, भाग-एक, सेक्शन-एक, स0.- 1(42)/2004 वि.-1, 8 अप्रैल, 2011) जारी कराने में मीडिया ने जो भूमिका निभाई है- इस अनुभव को देखते हुए कार्यक्षेत्रो में दखलन्दाज़ी निरोधक अधिनियम बनाना अनिवार्य हो गया है।

4 समाज के अतिसंपन्न वर्ग की बजाय मीडिया समाज के सभी वर्गों के प्रति उत्तरदायी हो सके- इसके लिए आवश्यक है कि एक नये कानून द्वारा मीडिया के प्रबन्धन व संचालन में अनुसूचित जातियों/जनजातियों, पिछडे वर्गों, समान्य वर्गों. अल्पसंख्यकों. बी0 पी0 एल0 और ए0 पी0 एल0 वर्गों का प्रतिनिधित्व उनके जनसंख्या के अनुपात में सुनिश्चित किया जाये।

5 यह कि यदि अनुचित व अलोकतांत्रिक दबाव डालकर और सरकार को ब्लैकमेल करके संसद द्वारा कोई कानून बनवा लिया जाता है तो ऐसे कानूनों को रदद करने का अधिकार सर्वोच्च न्यायालय को देने के लिए भी एक कानून बनाया जाना चाहिए। जिससे आतंकवादियों के संगठनों व विदेशी वित्तीय संस्थानों द्वारा उस रास्ते का भविष्य में उपयोग संभव न हो सके, जिस रास्ते का उपयोग मीडिया के माध्यम से उद्योगपतियों व व्यापारियों के संगठनों ने लोकपाल विधेयक संबन्धी अधिसूचना जारी कराने में किया है।

6 यह कि परम चरित्रवान होकर भी प्रधानमंत्री व सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश भ्रष्टाचार को अपने बल-बूते नहीं रोक सकते; क्योंकि जहाँ भ्रष्टाचार को स्वयं भ्रष्ट कानून (यथा उत्तराधिकार व संपत्ति संबन्धी कानून) बढाते हैं; वहाँ ये दोनों सत्तायें भी भ्रष्टाचार रोकने में असहाय हो जाती हैं। इसलिए यह आवश्यक हो गया है कि प्रधानमंत्री के पद और उच्च तथा सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीशों को लोकपाल जैसी किसी भ्रष्टाचार निरोधक सर्वोच्च सत्ता के दायरे में लाया जाये।

7 यह कि लोकपाल के संबन्ध में सन 2001 में ग्रिह मंत्रालय संबन्धी संसद की स्टैंडिंग कमेटी द्वारा जो रपट (84 वीं रपट, 26 फरवरी,2001 को लोकसभा में व 7 मार्च, 2001 को राज्य सभा में पेश) तैयार की गई व उसे संसद के पटल पर रखा गया। वह रपट लोकपाल के दायरे में प्रधानमंत्री के पद को व न्यायामूर्तियों को शामिल करने का सुझाव तो देती है, लेकिन लोकपाल के पदस्थापन का कोई ऐसा तरीका नहीं सुझाती, जिसमें लोकपाल के पद का लोकतांत्रिक मूल्य प्रधानमंत्री के पद के लोकतांत्रिक मूल्य से अधिक बन पाता हो। यह कमी अतीत में संसद में पेश उन सभी विधेयकों में मौजूद रही जो विधेयक संसद में सन- 1968, 1971, 1977, 1985, 1989, 1996, 1998, 2001 व 2010 में पेश किये गये। सन 2010 में विधि मंत्रालय द्वारा तैयार लोकपाल विधेयक के प्रारूप में भी यह कमी बरकरार रही। मीडिया के माध्यम से देश-विदेश के औद्योगिक संगठनों ने जनलोकपाल के नाम से लोकपाल विधेयक का जो मसौदा रखा, (और सरकार को ब्लैकमेल करके ज़बरदस्ती एक बिल ड्राफ्टिंग कमेटी बनवा लिया) उसमें भी यह कमी बरकरार है।

8 लोकपाल निर्वाचन हो, जिससे इस पद पर आसीन होने जा रहे व्यक्ति का आचरण व विचारधारा चर्चा का विषय बन सके; लोकपाल कार्यालय किसी की व्यक्तिगत सनक और अनुभवहीनता का शिकार न हो सके, व ऐसे फैसले न दे दे, जिससे उसकी निरर्थकता लोगों के सामने उजागर हो जाये और लोकपाल को भंग करना पड जाये।

9 यह कि प्रधानमंत्री जनप्रतिनिधियों द्वारा चुना जाता है। अत: उसके ऊपर केवल वही सत्ता निगरानी कर सकती है, जिस सत्ता को चुनने में सांसदों से भी अधिक संख्या में जनप्रतिनिधि शामिल हों। चूंकि सांसदों-विधायकों को क्रमश: प्रधानमंत्री व मुख्यमंत्री चुनने का अधिकार पहले से प्राप्त है। इसलिए लोकपाल चुनने का अधिकार देश भर के ब्लाक प्रमुखों को दे दिया जाये- तभी लोकपाल का लोकतांत्रिक मूल्य प्रधानमंत्री के लोकतांत्रिक मूल्य की तुलना में बढ सकता है। लोकपाल का चुनाव केवल वही व्यक्ति लड सकता हो, जो या तो सर्वोच्च न्यायालय का जज रहा हो, सर्वोच्च न्यायालय का जज बनने की योग्यता रखता हो।

10 सरकार के द्वारा सन 2010 में पेश लोकपाल विधेयक में और मीडिया द्वारा प्रचारित जनलोकपाल विधेयक – दोनों में सरकारी कर्मचारियों को रिश्वत देने वालों के अपराध को नज़रन्दाज़ किया गया है। भ्रष्टाचार खत्म करने के पूर्व के उपायों की विफलता का प्रमुख कारण ही इस तरह का पक्षपात रहा है। यह पक्षपात एक बार फिर से दोहराया जा रहा है। दोनों ही विधेयकों में “पब्लिक फंक्सनरी” और “पब्लिक सर्वेंट” के नाम पर केवल रिश्वत लेने वाले को ही घेराबन्दी करने के प्रावधान हैं, “भ्रष्टाचार के आरोपी” को घेरने की कोई योजना नहीं है। लोकपाल का विधेयक पक्षपात से मुक्त करने के लिए यह सुनिश्वित किया जाना चाहिए कि सरकारी कर्मचारी को तब तक दण्डित न किया जाये, जब तक उसे भ्रष्ट बनाने वाले गैर सरकारी व्यक्ति की पहचान नहीं कर ली जाती और उसे भी समान दण्ड से दण्डित नहीं किया जाता।

11 लोकपाल के अधीन चार उप लोकपालों का प्रावधान किया जाना चाहिए। पहला रिश्वत लेने वालों को, दूसरा बडे औद्योगिक घरानों व औद्योगिक संगठनों को भ्रष्टाचार में लिप्त होने संबन्धी कृत्यों व रिश्वत देने के मामलों में उन्हें दण्डित करने के लिए काम करे। तीसरा ऐसे अंतर्राष्ट्रीय संस्थानों के गठन करने के लिए विधायी प्रावधानों व अंतर्राष्ट्रीय कानूनों व सन्धियों की सिफारिश करेगा, जो संस्थान उन अंतर्राष्ट्रीय कानूनों व सन्धियों को निष्प्रभावी बना सकें- जो कानून व जो सन्धियां भ्रष्टाचार के माध्यम से हासिल रकम की और दूसरे देशों के भ्रष्ट लोगों की सुरक्षा करते है। चौथा उपलोकपाल देश में प्रचलित उन कानूनों और उन मूल्यों की समीक्षा करे और संबन्धित कानूनों व मूल्यों मे संशोधन तैयार करके सरकार को कार्यवाही के लिए प्रेषित करे; जिन कानूनों व मूल्यों के कारण भ्रष्टाचार करने के लिए लोगों को प्रेरणा मिलती है।

12 अप्रैल 2011 में जनलोकपाल के विधायी प्रस्ताव को लेकर मीडिया ने जो ऐतिहासिक सक्रियता दिखाई, उसके मूल में कौन-कौन से कारण थे, इसकी जाँच एक सक्षम आयोग द्वारा करवा के रपट संसद के पटल पर कार्यवाही के लिए रखी जाये।

13 विधि मंत्रालय द्वारा पेश व मीडिया प्रचारित लोकपाल विधेयक के दोनों मसौदों में लोकपाल की तलाश की कोई ऐसी प्रक्रिया नहीं दी गई है, जिससे किसी नये ढंग के चरित्र के व्यक्ति की तलाश संभव हो सके और उसका ब्यवहार संवैधानिक पदों पर आसीन वर्तमान लोगों के व्यवहार से अलग तरीके का हो सके। अत: लोकपाल के पद के लिए ऐसे व्यक्ति को तलाशा जाना चाहिए, जो धनेष्णा यानी धन के मोह से मुक्त हो चुका हो। अत: याचिकाकर्ता का प्रस्ताव यह है कि लोकपाल पद पर आसीन होने वाले व्यक्ति का वेतन-भत्ता शून्य होना चाहिए, इस पद पर आसीन होने से पूर्व उसे अपनी समस्त निजी सम्पत्ति भारत सरकार की संचित निधि को हस्तांतरित करने की शर्त होनी चाहिए।

14 यह कि लोकपाल बिल ड्राफ्टिंग कमेटी में कुछ अनिर्वाचित लोगों को यह कहकर शामिल किया गया है, कि वे लोग सिविल सोसाइटी (जनता) के प्रतिनिधि हैं। इसका अर्थ यह भी निकलता है कि इस कमेटी में शामिल मंत्रीगण सिविल सोसाइटी (जनता) के प्रतिनिधि नहीं हैं। जबकि निर्वाचित होने के नाते इन मंत्रियों को सिविल सोसाइटी का प्रतिनिधि होने से नकारा नहीं जा सकता। निर्वाचित प्रतिनिधियों की सिफारिश पर तो भारत के राजकोष से धन खर्च किया जा सकता है, किंतु यदि अनिर्वाचित लोग भी लोकपाल में कोई प्रावधान जुडवाते हैं, तो यह उनकी निजी मनोकामना है। उनकी निजी मनोकामना से जो काम किया जाये, उसका खर्च उन्हें स्वयं उठाना चाहिए। अत: यदि कुछ लोगों की निजी मनोकामना के आधार पर लोकपाल जैसा कोई संस्थान बनाया जाएगा और उस संस्थान का खर्च उन पर भारित होने के बजाय भारत के राजकोष पर भारित होगा- तो ऐसे संस्थान पर खर्च की गई रकम भ्रष्टाचार के दायरे में आयेगी, इसको सरकारी धन के दुरुपयोग की श्रेणी में रखा जाएगा। यदि कुछ लोगों के निजी लोकपाल का खर्च भारत की जनता पर भारित किया जाएगा, तो आने वाले दिनों में लोगों की सनक पर राजकोष के दुरुपयोग की घटनाएं बढती जाएंगी। यह परिस्थिति भ्रष्टाचार से भी बदतर होगी। अत: याचिकाकर्ता यह प्रस्ताव रखते हैं कि लोकपाल विधेयक के ऐसे किसी भी मसौदे को स्वीकार न किया जाये, जिसको तैयार करने में अनिर्वाचित लोगों की भूमिका रही हो।

15 यह कि लोकपाल की अवधारणा 1809 में स्वीडन में आई थी। आज 200 साल बाद भ्रष्ट लोग ज्यादा तकनीकि साधनों से लैस हो गये हैं। इसलिए 1809 का Ombudsman आज के लिए एक्सपायर मेडिसन बन गया है। यदि लोकपाल जैसे संस्थान से भ्रष्टाचार खत्म करने की नियति हो, तो आवश्यक है कि लोकपाल के पदस्थापन की प्रक्रिया वह नहीं होनी चाहिए जो 200 साल पहले अपनाई गई थी।

16 यह कि जिन देशों (Sweden, Austria, Burkina faso, Denmark, Finland, The Netherland, Poland, Portugal, Spain, New Zealand,) ने 1809 का लोकपाल अपने-अपने देशों में बैठाया है, उससे कुछ लोगों को रोज़गार तो मिल रहा है और वह औद्योगिक घरानों को सरकार पर शासन करने का माध्यम तो बन गया है, लेकिन उन देशों को भ्रष्टाचार से निजात नहीं दिला पाया है। इसका प्रमाण देखना तो विश्व के भ्रष्टतम देशों की अंतर्राष्ट्रीय सूची देखें। लोकपाल युक्त देशों और लोकपाल मुक्त देशों में कोई गुणात्मक अंतर नहीं आया है।

17 यह कि लोकपाल के गठन का जो विधेयक विधि मंत्रालय ने पेश किया है और मीडिया जिस विधेयक का प्रचार कर रहा है- दोनों में लोकपाल संस्थान वास्तव में सर्वोच्च न्यायालय का ही विस्तार है, या सर्वोच्च न्यायालय का ही भ्रष्टाचार निरोधक प्रकोष्ठ है। इसकी स्वायत्ता कुछ मानवाधिकार आयोग से मिलती-जुलती है। फिर ऐसा संस्थान, जो न तो लोगों द्वारा चुना जाएगा, न लोगों के प्रति उत्तरदायी होगा, न लोगों के पालन-पोषण का काम करेगा- तो उसे लोकपाल शब्द से पुकारा ही क्यों जाना चाहिए? यदि विधेयक में लोकपाल लोगों द्वारा चुना जाये, केवल भ्रष्टाचार ही नहीं, अपितु लोगों के पालन-पोषण करने का व उन्हें आर्थिक न्याय देने का, उपभोकवाद व प्रदर्शन प्रभाव में देश के धन की बर्बादी रोकने का भी काम करे, वह लोगों को रोज़गार देने का वायदा करने वाला संस्थान होने की बजाय लोगों के अभिभावक के रूप में भी काम करे- तो उसे “लोकपाल” शब्द से पुकारना उचित होगा, अन्यथा इस संस्थान को लोकपाल की बजाय भ्रष्टाचार निरोधक सर्वोच्च परिषद कहना ही उचित व सार्थक होगा।

18 भ्रष्टाचार जिन व्यवस्थागत कारणों व परिस्थितियों को सुधारने के लिए कोई प्रावधान सरकार व मीडिया द्वारा प्रचारित दोनों ही विधेयकों में नहीं दिया गया है। भ्रष्टाचार का फोडा बना रहे, केवल मवाद के ऊपर मोटी पट्टी बांधने की कवायद दोनों ही तरह के विधेयकों द्वारा की जा रही है। अत: याचिकाकर्ता को विधेयक नये मसौदे को देने की ज़रूरत पडी।

19 यह कि व्यवस्थागत भ्रष्टाचार के शिकार देश के गरीबी रेखा के नीचे (बीपीएल) व गरीबी रेखा के ऊपर (एपीएल) समुदाय के लोग व्यवस्थागत भ्रष्टाचार के शिकार हैं, जिनकी चिंता साकार व मीडिया- दोनों के विधेयकों में दिखाई नहीं पड रही है। अत: भ्रष्टाचार से पीडित देश की 80 फीसदी जनसंख्या को इन दोनों ही विधेयकों से कोई लाभ नहीं हो सकता।

20 लोकपाल के चयन की प्रक्रिया जो सरकारी विधेयक में दी गई है, वह निरर्थक है, इससे भ्रष्टाचार के किसी आरोपी को सज़ा मिल पाना लगभग असंभव है। लोकपाल के चयन की जो प्रक्रिया मीडिया द्वारा प्रचारित विधेयक में दी गई है, वह अव्यवहारिक, अनावश्यक राष्ट्र की सुरक्षा के लिए खतरनाक है।

21 यह कि यह याचिका अनैतिक व अनुचित तरीके से गठित और सरकार को ब्लैकमेल करके ज़बरदस्ती बनवाई गई बिल ड्राफ्टिंग कमेटी के समक्ष प्रस्तुत करके यचिकाकर्ता अपनी लोकतांत्रिक व संवैधानिक समझ पर लोगों को सवाल उठाने का अधिकार नहीं देना चाहते, अत: यह याचिका महामहिम के समक्ष प्रस्तुत की जा रही है।

प्रार्थना

उक्त तथ्यों व विश्लेषणों के प्रकाश में महामहिम से निम्नलिखित प्रार्थना है-

1 लोकपाल पर विधि मंत्रालय द्वारा पेश विधेयक – 2010 को अमान्य किया जाये।

2 मीडिया द्वारा सरकार को ब्लैकमेल करके जो अधिसूचना (असाधारण गजट, भाग-एक, सेक्शन-एक, स0.- 1(42)/2004 वि.-1, 8 अप्रैल, 2011) निकाली गई , उसे रद्द किया जाये।

3 केवल तुष्टिकरण के लिए विधेयकों के निर्माण की वह प्रक्रिया रद्द किया जाये, जिस प्रक्रिया के तहत उक्त अधिसूचना के माध्यम से लोकपाल विधेयक ड्राफ्टिंग कमेटी का गठन किया गया है।

4 लोकपाल संस्थान का गठन अवश्य किया जाये, किंतु वह लोगों का पालन-पोषण करने वाला हो, लोगों को सामाजिक सुरक्षा सुनिश्चित करने वाला संस्थान हो, न कि औद्योगिक घरानों को सरकार पर शासन करने का व देश के गरीबों/गुलामों पर आर्थिक अत्याचार करने का माध्यम बनने वाला हो।

5 जो काम लोकपाल से कराया जाना प्रस्तावित है, उस काम के लिए लोकपाल से अलग एक दूसरा संस्थान बनाया जाये, जिसे भ्रष्टाचार निरोधक सर्वोच्च परिषद या एण्टी करप्शन एपेक्स बोर्ड कहा जाये

6 भ्रष्टाचार निरोधक संस्थान/लोकपाल का गठन करने संबन्धी विधेयक में इस याचिका के साथ संलग्न याचिकाकर्ता द्वारा तैयार लोकपाल विधेयक के सुझावों को ध्यान में रखा जाये।

7 यह कि केन्द्र सरकार द्वारा पेश लोकपाल विधेयक-2010 के जो प्रावधान इस याचिका में दिये गये सुझावों व इस याचिका के साथ संलग्न लोकपाल विधेयक के किसी प्रावधान को सीमित करते हों, उन प्रावधानों को शून्य माना जाये व सरकार द्वारा पेश लोकपाल विधेयक-2010 के शेष प्रावधानों को स्वीकार कर लिया जाये।

8 यह कि मीडया द्वारा प्रचारित जनलोकपाल विधेयक-2011 के जो प्रावधान इस याचिका में दिये गये सुझावों व इस याचिका के साथ संलग्न लोकपाल विधेयक के किसी प्रावधान को सीमित करते हों, उन प्रावधानों को शून्य माना जाये व मीडया द्वारा प्रचारित जनलोकपाल विधेयक-2011 के शेष प्रावधानों को स्वीकार कर लिया जाये।

9 भ्रष्टाचार निरोधक संस्थान/लोकपाल के गठन की प्रक्रिया में याचिकाकर्ता को विधेयक के अपने प्रावधानों के स्पष्टीकरण के लिये व्यक्तिगत रूप से बुलाया जाये।

10 याचिकाकर्ता की इस याचिका पर राष्ट्रपति भवन की ओर से क्या कार्यवाही की गई, महामहिम यह जानकारी याचिकाकर्ता को समय रहते देने की क्रिपा करें।

(भरत गांधी)

09 मई, 2011

नई दिल्ली

संलग्नक: याचिकाकर्ता संगठन द्वारा तैयार भ्रष्टाचार निरोधक सर्वोच्च परिषद या एण्टी करप्शन एपेक्स बोर्ड/लोकपाल (गठन) विधेयक- 2011

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